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कहा :'अरे हद हो गई, यह मुझे करना था, मैं तो नहीं कर पाया। मैं कमजोर, दीन-हीन, पापी! मगर तुमने कर दिखाया, तुम धन्यभागी!'
तुम जहां-जहां त्यागी को पाओगे वहां- वहां भोगी को उसके चरण दबाते पाओगे। यह चमत्कार है। लेकिन यह गणित के हिसाब से चलता है। संन्यासी से त्यागी भी प्रभावित नहीं होगा और भोगी भी प्रभावित नहीं होगा। त्यागी से भोगी प्रभावित होता है और त्यागी भोगी से प्रभावित रहता है। गहरे में वह भी यही चाहता है, इसलिए तो स्वर्ग में आकांक्षा कर लेता है उस सबकी जो तुम्हें यहां मिला है, तुम यहां स्त्रियां भोग रहे हो; त्यागी अपने मन में सांत्वना कर लेता है कि इन स्त्रियों में क्या रखा है, अरे दो दिन में कुम्हला जाएंगी! भोगेंगे हम स्वर्ग में अप्सराएं जिनकी उम्र सोलह साल पर ठहर जाती है, फिर कभी आगे नहीं बढ़ती। तुम यहां शराब पी रहे हो चुल्ल-चुल्ल; हम पीएंगे स्वर्ग में, बहिश्त में, जहां शराब के चश्मे बहते हैं, डुबकी लगाएंगे, कूदेंगे, फाटेंगे, पीएंगे! कोई ऐसा दूकान पर क्यू लगा कर लायसेंस से थोड़े ही मिलती है! तुम क्षुद्र में उलझे हो, हम भोगेंगे वहां! यहां हम त्यागते हैं ताकि हम वहा भोग सकें।
त्यागी भोग के बाहर नहीं है। तुम उनके स्वर्ग की कथाएं देखो। तुम उनके स्वर्ग की कथा से समझ जाओगे कि त्यागी अगर त्याग भी कर रहा है तो किसलिए कर रहा है। आकांक्षा भोग की है। और अगर यहां भोग से बच रहा है तो इसी आशा में कि मिलेगा कल, फल मिलेगा, आज कर लो उपवास, रहो धूप में, तपाओ शरीर को, और यह शरीर तो जाने ही वाला है, एक दिन जलेगा चिता में, इसको कब तक बचाओगे! कुछ ऐसा कमा लो जो फिर सदा-सदा, शाश्वत तक साथ रहेगा।
लेकिन त्यागी भी भोग के लिए ही त्याग कर रहा है। जब तक तुम किसी चीज को पाने के लिए त्याग करते हो तब तक तुम भोगी ही हो। यह त्याग किसी ज्ञान से नहीं घट रहा है। और जिसको तुम भोगी कहते हो, वह भी त्याग की सोचता है; उसको भी समझ में आता है, लेकिन देखता है कि मैं कमजोर हूं, अभी इतनी सामर्थ्य नहीं, बल नहीं, होगा कभी बल बुढ़ापे में, अगले जन्म में कभी बल होगा, छोडूंगा-छोडूंगा जरूर। इस बात की आशा को जगाए रखने के लिए वह त्यागी के चरणों में सिर रख आता है-स्मरण दिलाने को कि आना तो इसी राह पर मुझे भी है। तुम जरा आगे चले गए हो, मैं जरा पीछे आता हूं, पर आऊंगा जरूर! आज तो नहीं संभव है, कल आऊंगा। तो आज कम से कम इतना तो करूं कि तुम्हारे चरणों में सिर झुका जाऊं याददाश्त बनी रहे।
त्यागी-भोगी एक ही भाषा बोलते हैं। उनकी भाषा में अंतर नहीं है, दोनों समझते हैं एक-दूसरे को। इसलिए अक्सर तुम देखोगे, जितना भोगी समाज होगा, उतनी ही त्याग की प्रशंसा होगी। इससे बड़ी उलझन पैदा होती है।
अब जैन हैं, उनकी त्याग की परिभाषा भारत में सबसे ज्यादा कठिन है, लेकिन सबसे ज्यादा धनी समाज वही है। महावीर नग्न खड़े हो गए और सबसे ज्यादा कपड़े की दूकानें जैनियों की हैं। मैं कभी-कभी सोचता हूं।
मैं जबलपुर में रहता था तो एक मेरे निकट के रिश्तेदार हैं, उनकी दूकान का नाम है : दिगंबर