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एक हाथ से मैं तुम्हारा हाथ पकड़ सकता हूं वह तुम्हारे जैसा है और दूसरे हाथ से तुम्हें एक यात्रा पर ले जा सकता हूं, वह हाथ परमात्मा का है। एक हाथ मैं तुम्हारे हाथ में दे सकता हूं और एक परमात्मा के हाथ में दिया है। यही सदगुरु का अर्थ है। अगर सदगुरु बिलकुल परमात्मा जैसा हो तो संबंध टूट जाएगा; अगर बिलकुल मनुष्य जैसा हो तो किसी काम का नहीं है।
सदगुरु सेतु होना चाहिए-स्व हिस्सा पुल का इस किनारे पर टिका हो और एक हिस्सा पुल का उस किनारे पर टिका हो, तो ही सदगुरु तुम्हें पार ले जा सकेगा।
मेरी यह घोषणा कि मैं भगवान हूं तुम्हारे लिए सिर्फ जागने का एक मौका है। तुम्हें भगवान कहा था जगाने के लिए। वह काम न आयी तरकीब। अब अपने को भगवान कह रहा हूं वह भी तुम्हें जगाने के लिए। काम आ गई तो ठीक, अन्यथा कोई और तरकीब करेंगे।
तीसरा प्रश्न :
आप तो जनक के गवाह हैं। क्या सच ही आत्मोपलब्धि पर यह भाव होता है :' अहा अहं नमो महम! मेरा मुझको नमस्कार! अहो!' क्या ऐसा भाव होता है सम्यक समाधि में?
एसा भाव होता नहीं, क्योंकि वहां तो? सारे भाव खो जाते हैं, सब विचार खो जाते हैं। लेकिन जब समाधि से उतरती है चेतना वापस जगत में, तब ऐसा भाव होता है।
इसको ठीक से समझ लेना। ठीक निर्विकल्प समाधि में तो कोई भाव नहीं होता-वही तो निर्विकल्प होने का अर्थ है। सब भाव शून्य हो जाते हैं। लेकिन जब चेतना वापस उतरती है उस महालोक से, फिर लौटती है इस जगत में, मन में, देह में, संसार में; और जब चेतना चेष्टा करती है अभिव्यक्त करने का कि क्या हुआ, उस महालोक में क्या घटा, कौन-सी प्रतीति हुई कौन-सा स्वाद मिला-तब ऐसा भाव जरूर होता है:' अहो अहं नमो मां!' तब ऐसा भाव होता है कि धन्य हूं मैं मेरे ही भीतर परमात्मा विराजमान है! मैं अपने ही चरण लगू ऐसा भाव होता है।
यह वचन बहुत अनूठा है जनक का यह वचन अदभुत है। सिर्फ एक उल्लेख मिलता है रामकृष्ण के जीवन में कि उनका चित्र किसी ने लिया और जब चित्रकार चित्र ले कर आया तो रामकृष्ण अपने ही चित्र के सामने झुक कर उसके चरण छूने लगे। शिष्य तो समझे कि दिमाग इनका खराब हुआ| अब यह हद हो गयी! यह भी पागलपन की हद है! किसी ने कहा भी कि 'परमहंसदेव, आप यह क्या कर रहे हैं? अपने ही चित्र का पूजन कर रहे हैं? नमन कर रहे हैं अपने ही चित्र को?' रामकृष्ण ने कहा:' भली याद दिलाई। मैं तो भूल ही गया। यह तो समाधि का चित्र है। यह तो किसी भाव-दशा