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'आश्रम है, अनाश्रम है............. इस जाल में पड़ने के लिए जनक कहते हैं, मैं तैयार नहीं, इसलिए अपने में स्थित हो गया हूं।' ध्यान है और चित्त का स्वीकार और वर्जन है......: ।'
यह पकड़ो, यह छोड़ो! मैं दोनों छोड़ कर अपने में स्थित हो गया हूं।
कण-कण करके दुनिया जोड़ी कितनी भुक्खड़ चाह निगोड़ी सब के प्रति मन में कमजोरी किससे नाता तोडूं रे! अंगड-खंगड मोह सभी से क्या बांधू? क्या छोडूं रे! क्या लादूं क्या छोडूं रे!
झोपड़ियां कुछ पीठ लिए हैं कुछ महलों को पीठ दिए हैं भोगी त्यागी, त्यागी भोगी दो में किससे होडू रे! अंगड-खंगड मोह सभी से, क्या बीजू क्या छोडूं रे! क्या लादूं क्या छोडूं रे!
तिनका साथ नहीं चलता है बोझा फिर भी सिर खलता है तन की आंखें मोड़ी, कैसे मन की आंखें मोडूं रे! अंगड-खंगड मोह सभी से, क्या बांधू क्या छोडूं रे! क्या लादूं क्या छोडूं रे!
अपना कह कर हाथ लगाऊ, कैसा रखवारा कहलाऊं! जिसका सारा माल-मत्ता है