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हूं वैसा ही स्थित हो'
ये शब्द सुनना। ये शब्द गुनना। ये शब्द खूब भीतर तुम्हारे पड़ जाएं बीज की तरहा 'अब मैं जैसा हूं वैसा ही स्थित हूं'
मेरी भी सारी शिक्षा यही है कि तुम जैसे हो वैसे ही परमात्मा को स्वीकार हो। तुम नाहक दौड़-धूप मत करो। तुम यह मत कहो कि पहले हम पुण्यात्मा और महात्मा बनेंगे तब फिर परमात्मा हमें स्वीकार करेगा। तुम जैसे हो वैसे ही ठहर जाओ! तुम स्वीकृत हो।
तुम्हारा मन आपाधापी का आदी हो गया है। पहले धन के पीछे दौड़ता है; फिर धन से ऊब गए तो ध्यान के पीछे दौड़ता है-लेकिन दौड़ता है जरूर। और जब तक तुम दौड़ते, तब तक तुम उपलब्ध न हो सकोगे। आस्थित हो जाओ! रुक जाओ!
_ऐसा कहो: इस संसार में बिना दौड़े कुछ भी नहीं मिलता। यहां तो दौड़ोगे तो कुछ मिलेगा। तो संसार का यह सूत्र हुआ कि यहां दौड़ने से मिलता है। और परमात्मा के जगत में अगर दौड़े तो खो दोगे। वहां न दौड़ने से मिलता है। तो स्वाभाविक, जगत और परमात्मा का गणित बिलकु_ल भिन्न-भिन्न है। यहां न दौड़े तो गवाओगे, यहां तो दौड़े तो ही कमाओगे। वहां अगर दौड़े तो गंवाया। वहां तो अगर ठहर गए, बैठ गए, रुक गए, आस्थित:, तटस्थ, कूटस्थ हो गए-मिल गया! दौड़ने के कारण ही खो रहे हो। दौड़ने के कारण ही, दौड़ने के ज्वर के कारण ही तुम्हें उसका पता नहीं चल पाता जो तुम्हारे भीतर है।
हेयोपादेयविरहादेव हर्षविषादयोः।
अभावादद्य हे ब्रह्मान्नेवमेवाहमास्थितः। हे ब्रह्मन्! जनक अपने गुरु को कहते हैं: हे ब्रह्मन्! हे भगवान!
हेयोपादेयविरहात्..................:| अब तो क्या ठीक, क्या गलत-दोनों ही गए! क्या करना, क्या न करना-दोनों ही गए, क्योंकि कर्ता गया। क्या शुभ, क्या अशुभ-ऐसी चिंता अब न रही, क्योंकि करने को ही अब कुछ नहीं रहा। मैं तो अकर्ता हूं!
हर्षविषाद्यो अभावत्.. ..............:I -और ऐसा होने के कारण हर्ष और विषाद का अभाव हो गया है।
हे ब्रह्मन् अद्य अहं एवं एव आस्थितः। -इसलिए अब तो मैं जैसा हूं, वैसा का वैसा ही स्थित हो गया हूं।
मैं कुछ नया नहीं हो गया। मैं कुछ महात्मा नहीं हो गया। मैंने कुछ पा नहीं लिया। अब तो मैं जैसा हूं वैसा ही स्थित हो गया हो और स्वभाव का अर्थ इतना ही होता है कि जैसे हो, वैसे ही स्थित हो जाओ।
यह अपूर्व उपदेश है। इससे अधिक ऊंचाई कभी किसी उपदेश ने नहीं ली। यह आखिरी देशना है। इससे श्रेष्ठ कोई देशना हो नहीं सकती, क्योंकि यह परम स्वीकार की बात है। तुम जैसे हो वैसे