________________
अगर तुम मंदिरों में जाओ, साधु -संन्यासियों के सत्संग में जाओ-संन्यासी जिनको मैं 'सत्यानाशी' कहता हूं -उनकी बात सुनो, तो तुम एक बात निश्चित पाओगे: उन्हीं उन्हीं चीजों की वे निंदा कर रहे हैं जिनमें तम्हें रस है। अगर तम्हें धन में रस है तो वे धन की निंदा कर रहे हैं। तुम्हें अगर कामवासना में रस है तो वे कामवासना की निंदा कर रहे हैं। तुम्हें अगर स्त्री में रस है तो वे स्त्री का जैसा वीभत्स चित्र खींच सकें वैसा खींचने की चेष्टा कर रहे हैं। लेकिन यह सारी चेष्टा एक ही बात बताती है: रस विपरीत तो हुआ, बदला नहीं। राग विराग तो बना, गया नहीं।
वीतराग का अर्थ है: जहां राग और विराग दोनों गए। वीतराग का अर्थ है : जहां तुमने इतना ही जाना कि न मेरी किसी से शत्रुता है, और न मेरी किसी से मित्रता है-मैं अकेला हूं असंग अछूता, कुंआरा!
तस्मात् एवं अहं आस्थितः । 'और इस कारण मैं स्वयं में हूं और इस प्रकार मैं स्थित हुआ हूं'
यह जनक और अष्टावक्र के बीच जो चर्चा है, यह अदभुत संवाद है। अष्टावक्र ने कुछ बहुमूल्य बातें कहीं। जनक उन्हीं बातो की प्रतिध्वनि करते हैं। जनक कहते हैं कि ठीक कहा, बिलकुल ठीक कहा, ऐसा ही मैं भी अनुभव कर रहा हूं, मैं अपने अनुभव की अभिव्यक्ति देता हूं। इसमें कुछ प्रश्न-उत्तर नहीं है। एक ही बात को गुरु और शिष्य दोनों कह रहे हैं। एक ही बात को अपने-अपने
ग से दोनों ने गनगनाया है। दोनों के बीच एक गहरा संवाद है। यह संवाद है, यह विवाद नहीं है। कृष्ण और अर्जुन के बीच विवाद है। अर्जुन को संदेह है। वह नई-नई शंकाएं उठाता है। चाहे प्रगट रूप से कहता भी न हो कि तुम गलत कह रहे हो, लेकिन अप्रगट रूप से कहे चला जाता है कि अभी मेरा संशय नहीं मिटा। वह एक ही बात है। वह कहने का सज्जनोचित ढंग है कि अभी मेरा संशय नहीं मिटा, अभी मेरी शंका जिंदा है; तुमने जो कहा वह जंचा नहीं।
तो अगर कोई उपद्रवी हो तो सीधा कहता है, तुम गलत। अगर कोई सज्जन सुशील हो, कुलीन हो, तो कहता है अभी मुझे जंचा नहीं। बस, इतना ही फर्क है, लेकिन विवाद तो है।
यह गीता जनक और अष्टावक्र के बीच जरा भी विवाद नहीं है। जैसे दो दर्पण एक-दूसरे के सामने रखे हों और एक-दूसरे के दर्पण में एक-दूसरे दर्पण की छवि बन रही है।
एक महिला एक दूकान पर गई। उसके दो जुड़वां बेटे थे; दोनों के लिए कपड़े खरीदती थी। क्रिसमस का त्यौहार करीब था। दोनों ने कपड़े पहने। एक-से कपड़े दोनों के लिए खरीदे। दोनों बड़े सुंदर लग रहे थे। दूकानदार ने कहा कि तुम दोनों जा कर, पीछे दर्पण लगा है, वहां खड़े हो कर देख लो। उस महिला ने कहा, जरूरत नहीं। ये एक-दूसरे को देख लेते हैं और समझ लेते हैं कि बात हो गई। दर्पण की क्या जरूरत? दोनों जुड़वां हैं; एक जैसे लगते हैं; एक जैसे कपड़े पहनते हैं। ये दर्पण कभी देखते ही नहीं। ये एक-दूसरे को देख लेते हैं, बात हो जाती है।
कुछ ऐसा जनक और अष्टावक्र के बीच घट रहा है-दर्पण दर्पण के सामने खड़ा है। जैसे दो जुड़वां, एक ही अंडे से पैदा हुए बच्चे हैं। दोनों का स्रोत समझ का साक्षी है। दोनों की समझ बिलकुल