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लेंगे धर्म। मेरे पास आ जाते हैं, कहते हैं, अभी तो हम जवान हैं। के भी मेरे पास आते हैं, उनको भी अभी पक्का नहीं हुआ कि बूढ़े हो गए हैं। वे भी कहते हैं: अभी तो बहुत उलझनें हैं और अभी कोई मरे थोड़े ही जाते हैं! अभी तो समय पड़ा है-कर लेंगे!' टालते चले जाते हैं। मरते-मरते, जब कि श्वास छूटने लगती, दूसरे राम-राम जपते तुम्हारे कान में, दूसरे गंगाजल पिलाते तुम्हें......| जब जवान थे, ऊर्जा थी-तब ली होती इबकी गंगा में, तब तैरे होते, तब बहे होते गंगा में, तो सागर तक पहुंच गए होते। अब मरते-मरते, गले में उतरता नहीं:।
मैं एक घर में मेहमान था, एक आदमी मर रहा था। उसके बेटे उसको गंगाजल पिला रहे हैं, वह जा नहीं रहा गले में। वह मर ही चुका है। किसको धोखा दे रहे! पंडित मंत्रपाठ कर रहा है। उसको होश नहीं है, वह आदमी बेहोश पड़ा है, उसकी आखिरी सांस लथड़ रही है। पानी गटकने तक की क्षमता नहीं रह गई है-अब राम को गटकना बहुत मुश्किल हो जाएगा।
ऐसी प्रतीक्षा मत करते बैठे रहना। चेतना हो तो अभी चेतना। जो अभी चेता-वही चेता। जिसने कहा कल-वह सोया और उसने खोया। कल की बात ही मत उठाना। कल का कोई भरोसा नहीं है। कल है मौत, जीवन है आज। जीवन तो बस अभी है, अभी या कभी नहीं।
जिसको इतनी प्रगाढ़ता से जीवन की स्थिति का स्मरण आएगा, वही शायद दाव लगा सकेगा। और धर्म तो जुए का दाव है। मुफ्त नहीं है, पूरा चुकाओगे तो ही पा सकोगे। सब खोओगे, तो ही मिलेगा। सस्ता धर्म मत खोजना। सस्ता धर्म होता ही नहीं। धर्म महंगी बात है। इसीलिए तो कुछ सौभाग्यशाली उस संपदा को उपलब्ध कर पाते हैं। सस्ता होता, मुफ्त बटता होता, धर्मादय में मिलता होता, तो सभी को मिल गया होता|: अदयक श्रम और अदयक प्रयास का परिणाम है। यदयपि जब आता है तब प्रसादरूप आता है; लेकिन पहले प्रयास जो करता है, वही प्रसाद का हकदार होता है। आज के सूत्र अत्यंत क्रांतिकारी सूत्र हैं। खूब साक्षी- भाव रखकर समझोगे तो ही समझ में आएंगे, अन्यथा चूक जाओगे। शायद ऐसे सूत्र कभी तुमने सुने भी न होंगे। इससे ज्यादा और क्रांतिकारी सूत्र हो भी नहीं सकते।
इसलिए मैं निरंतर कहता हूं कि अष्टावक्र की गीता पर सुधार करना संभव नहीं है आखिरी बात और आखिरी ढंग से कह दी है। हो गए पांच हजार साल, लेकिन पांच हजार सालों में फिर इससे
और कीमती वक्तव्य नहीं दिया जा सका। कभी-कभी ऐसा होता है, कोई-कोई वक्तव्य आखिरी हो जाता हैं,'। फिर उसमें सुधार संभव नहीं होता। वह पूर्ण होता है। उसमें सुधार का उपाय नहीं होता। उसको सजाया भी नहीं जा सकता।
तुमने कभी देखा? अगर कुरूप स्त्री आभूषण पहन ले, सुंदर वस्त्र पहन ले तो अच्छी लगने लगती है; लेकिन अति सुंदर स्त्री अगर आभूषण पहनने लगे तो भद्दी हो जाती है। सौंदर्य का अर्थ ही यह है कि अब कोई आभूषण सौंदर्य को बढ़ा न सकेंगे, कम कर देंगे। इसलिए जब भी कोई समाज सुंदर होने लगता है तो वहां से आभूषण विदा होने लगते हैं। जितना कुरूप समाज होता है-उतना आभूषण, उतने वस्त्र, उतना रंग-रोगन, उतने झूठ। जब कोई सुंदर होता है तो सौंदर्य काफी होता