________________
उसने कहा : मैंने किताबों में पढ़ा, यूरोप में बैंक हैं -उनके संबंध में। मैंने भी अपने दवार पर एक तख्ती लगा दी-बैंक। घंटे भर बाद एक आदमी आया और दो सौ डालर जमा करवा गया। सांझ दूसरा आदमी आया और डेढ़ सौ डालर जमा करवा गया। तीसरे दिन तक तो मेरी हिम्मत इतनी बढ़ गई कि मेरे भी पास जो बीस डालर थे, वे भी मैंने अपने बैंक में जमा कराए।
ऐसे भरोसा पैदा हो जाता है।
तुम अपनी छवि को दूसरे की आंख में ही देखते हो; और तो उपाय भी नहीं है। तुम अपने को पहचानते भी दूसरे के माध्यम से हो; और तो कोई उपाय भी नहीं है। दूसरे की आंखें दर्पण का काम करती हैं। अब अगर दर्पण के सामने तुम मुस्कुराते हुए खड़े हो गए तो दर्पण क्या करे? दर्पण बता देता है कि मुस्कुराहट है ओंठों पर। दर्पण में मुस्कुराहट देख कर तुम्हें भरोसा आ जाता है कि जरूर मैं खुश होऊंगा। ऐसा बार-बार करने से, दोहराने से असत्य भी सत्य मालूम होने लगते हैं। फिर हम डरते हैं कि कहीं सत्य का पता न चल जाए, तो हम अपने भीतर देखना बंद कर देते हैं, हम फिर बाहर ही देखते हैं।
लोगों से पूछो, तुम कौन हो? तो वे जो उत्तर देंगे, वे उत्तर उन्होंने बाहर से सीखे हैं। यह भी गजब हुआ यह भी अजब हुआ अपना पता दूसरे से पूछते हो! मैं कौन हूं यह दूसरे से पूछते हो दूसरे को खुद का पता नहीं है, तुम्हें कैसे बता सकेगा 2:
अपना पता अपने से पूछना होगा आंख बंद करके देखना होगा। लेकिन लोग आंख बंद नहीं करते हैं; आंख बंद की कि सो जाते हैं। इसलिए तो कभी-कभी जब तुम आंख बंद करते हो, नींद नहीं आती, तो बड़ी तकलीफ होती है। वह तकलीफ नींद न आने के कारण नहीं है। वह तकलीफ इसलिए है कि आंख खुली रहे तो दूसरे दिखाई पड़ते रहते हैं; आंख बंद हो जाए और नींद न आए, तो अपने भीतर का उपद्रव दिखाई पड़ने लगता है-कूड़ा-कर्कट, नर्क, पर्त-पर्त खुलने लगती है, उससे घबड़ाहट होती है।
नींद न आने के कारण घबड़ाहट नहीं है। घड़ी भर को नींद न आई तो क्या बिगड़ जाएगा? लेकिन हम दो ही उपाय जानते हैं-आंख खुली हो तो कहीं उलझे रहें, आंख बंद हो तो नींद में डूब जाएं। आंख बंद करके जागे रहना कठिन है। क्योंकि आंख बंद करके फिर हमें अपनी असली तस्वीर दिखाई पड़ने लगती है। और वह असली तस्वीर बहुत सुंदर नहीं है। आत्मज्ञानी कुछ भी कहें, हमें उनकी बात पर भरोसा नहीं आता। वे तो कहते हैं, परम परमात्मा विराजमान है। हम तो जब भी भीतर देखते हैं तो अंधेरा, नर्क, दुख, पीड़ा, अतीत के सब टूटे हुए सपने खंडहर, हाथ तो कुछ लगा नहीं कभी, अतृप्ति-अतृप्ति की कतार पर कतारें-वही हाथ लगती हैं।
ज्ञानी कहते हैं भीतर बड़ा प्रकाश है! हम तो जब भीतर जाते हैं तो अंधेरे ही अंधेरे से मिलना होता है, बड़ी घबड़ाहट होने लगती है; अमावस की रात मालूम होती है। पूर्णिमा तो दूर, छोटा-मोटा चांद भी नहीं होता, दूज का चांद भी नहीं होता, रोशनी का कोई पता नहीं चलता। एक अंधेरे की गर्त में डूबने लगते हैं। घबड़ाहट होती है।