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प्रस्तावना
नोलम्ब कुलके नरेशोंका सर्वनाश किया । इतना ही नहीं उसने उच्चगि दुर्गको स्वाधीन कर शवराधिपति नरगका संहार किया, चौड़ नरेश राजादित्यको जीता एवं चेर, चोड, पाण्डय और पल्लव नरेशोंको परास्त किया। इसने अनेक जैन मन्दिरोंका निर्माण कराया। अन्तमें राज्यका परित्याग कर अजितसेन भट्टारकके समीप तीन दिवस तक सल्लेखना व्रतका पालन कर बंकापुरमें देहोत्सर्ग किया। लिखा है -
धर्म ( म )ङ्गलं नमस्यं नडयिसिबलियमोन्दुवर्षं राज्यमं पत्तुविट्ट बङ्कापुरदोल अजितसेनभट्टारकर श्रीपादसन्निधियोल आराधनाविधियिमूरुदे सं नोन्तु समाधियं साधिसिदं॥
यह अभिलेख शक-संवत् ८९६ का है। अतः अजितसेनका समय ईसवी सन्की दशम शती सिद्ध होता है । इस प्रकार यह अजितसेन भी अलंकारचिन्तामणिके रचयिता नहीं हो सकते हैं। शकसंवत् ९६२ में चन्द्रगिरिपर प्राप्त एक अभिलेखमें अजितसेनका नामोल्लेख मिलता है । इनके शिष्य चामुण्डके पुत्र जिनदेवणने बेलगोलमें एक जिनमन्दिरका निर्माण कराया था । इस अभिलेखमें निर्दिष्ट अजितसेन भी अलंकार चिन्तामणिके रचयिता सम्भव नहीं हैं ।
मल्लिषेणप्रशस्तिमें अजितसेनका नाम उपलब्ध होता है । यह अजितसेन तार्किक और नैयायिक थे। इस कारण इनकी उपाधि वादीभसिंह थी। मल्लिषेणप्रशस्ति पार्श्वनाथवस्तिके एक स्तम्भपर शकसंवत् १०५० में अंकित की गयी है । अतः अजितसेनका समय ईसवी सन्की बारहवीं शती सिद्ध होता है। इसमें सन्देह नहीं कि यह अजितसेन राजाओंके द्वारा मान्य प्रभावशाली जैनागममें प्रवीण विद्वान् रहे हैं । प्रशस्ति में लिखा है
सकल-भुवनपालानम्र-मूर्द्धावबद्धस्फुरित-मुकुट-चूड़ालीढ-पादारविन्दः । मदवदखिल-वादीभेन्द्र-कुम्भप्रभेदी
गणभृदजितसेनो भाति वादीसिंहः ॥ अलंकारचिन्तामणिका रचनाकाल बारहवीं शतीके पश्चात् होना चाहिए । अतएव मल्लिषणप्रशस्तिमें निर्दिष्ट अजितसेन भी अलंकारचिन्तामणिके रचयिता नहीं हैं।
___ अलंकारचिन्तामणिके रचयिता अजितसेन अन्य अलंकारग्रन्थ 'शृंगारमंजरी' के भी रचयिता हैं। डॉ. ज्योतिप्रसाद जीने अजितसेनका परिचय देते हुए लिखा है कि अलंकारचिन्तामणिके रचयिता अजितसेन यतीश्वर दक्षिणदेशान्तर्गत तुलुव प्रदेशके निवासी सेनगण पोगरिगच्छके मुनि सम्भवतया पार्श्वसेनके प्रशिष्य और पद्मसेनके गुरु महासेनके सधर्मा या गुरु थे।
जैन शिलालेख संग्रह, प्रथम भाग, अभिलेख सं. ३८, पृ. सं २० । २ जैन शिलालेख संग्रह. प्रथम भाग, अभिलेख सं०४०, पद्य ५७, पृ. सं १११।
३. जैनसन्देश शोधांक २, नवम्बर, २०, सन् १९५८, पृ. सं. ७६ । Jain Education International
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