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परमात्म-पथ का दर्शन
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बनाया और न वे किसी सम्प्रदाय को चलाना चाहते थे, बल्कि उन्होने इसी चीत्रीनी में आगे गच्छ सम्प्रदाय, पथ आदि के प्रति अपनी अरुचि प्रदर्शित की है, इसलिए आनन्दघन-मत का अर्य किसी मत, पथ या सम्प्रदाय का सूचक नही हो सकता। चूकि योगी आनन्दघनजी जिंदगीभर आत्म-शोधन, आत्मचिन्तन-मनन और आत्मविकास के अवलोकन मे रहे हैं, इसलिए आनन्दधनमत का अर्थ यहां आनन्दघनरूप = शुद्धात्मभावमय मत=विचाररूपी आम्रफल अथवा शुद्धात्मभावमय दिचार का सार है।
श्रीआनन्दधनजी के कहने का अभिप्राय यह है कि जब मैंने अपने शुद्ध चित्त-क्षेत्र में परमात्म-पथ-दर्शन के प्रति तीव्र आत्मनिष्ठा-रूपी आम की गुठली वो दी है, तब तो एक दिन में उसके स्वभावरमणता मे आनन्द देने वाले आनन्दघनरूप परमात्मा के विचार की शीतल शुद्धात्मदशारूपी छाया वाला आम्रवृक्ष -परमात्मा (वीतराग) अथवा परमात्मपथदर्शनरूपी आम्रफल अवश्य प्राप्त करूंगा। ऐसा मेरा अखण्ड मत=निश्चय है ।
सारांश अजितनाय भगवान् की स्तुति के बहाने इस स्तुति मे श्रीआनन्दघनजी ने पन्मात्म-मार्ग के दर्शन की तीव्र उत्कण्ठा बताई है। साथ ही दिव्यज्ञानचक्षु को उसका सर्वोत्तम उपाय बना कर उन्होंने परमात्मपथ के दर्शन करने मे चर्मचक्षु, पुरुष-परम्परा, गास्त्र-परम्परा तथा पराश्रित अनुभव, आगम, तर्क, यथार्थवक्ता एव दिव्यजान का वियोग आदि मुख्य कठिनाइयों बताई है , लेकिन अन्त मे स्वीकार किया है कि उच्चश्रेणी के क्षयोपशम वाले निर्मल श्रुतज्ञानी पुरुष के श्र तज्ञान का वोध वर्तमानयुग मे आधाररूप हो सकता है। लेकिन अन्तिम गाथा मे कालपरिपक्व होने तक परमात्मपथदर्णन की प्रतीक्षा मे रत रहने की आशा का अवलम्बन मान कर उसी के सहारे जीवन जीने का निश्चय किया है। मतलब यह है कि रागद्वेषादि विकारो से रहित शुद्ध आत्मदशा प्राप्त होने पर ही पूर्णरूप से परमात्मपथ का साक्षात्कार हो सकता है, यही सब गाथाओ का निचोड है।