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वीतराग परमात्मा की चरणसेवा
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इस अपेक्षावाद को यथार्थरूप से समझ कर जो आचरण, प्ररूपण व श्रद्धान करता है, उनका वह व्यवहार वचनसापेक्ष होने के कारण सच्चा , व्यवहार (नय) है। परन्तु इसके विपरीत जो अपेक्षा या दृष्टिविन्दु को ठीकतौर से न समझ कर एकान्त एक ही दृष्टि से आचरण, प्ररूपण व श्रद्धान करता है, उसका वह व्यवहार वचननिरपेक्ष होने के कारण मिथ्या है।
इस प्रकार का वचननिरपेक्ष व्यवहार अथवा आत्मतत्त्व की अपेक्षारहित परमार्थ मूलहेतुभूतरहित व्यवहार (निश्चय को लक्ष्य में न रख कर की हुई व्यवहारक्रिया) का फल तो चारगति मे भ्रमण-रूप ससार ही है । यहाँ जैसे वचननिरपेक्ष व्यवहार को ससार वृद्धिरूप फलदाता कहा है, वैसे वचननिरपेक्ष व्यवहार को छोड कर एकान्त निश्चय भी उपलक्षण से ससार वृन्निरूप फल दाता समझ लेना चाहिए।
निष्कर्प यह है कि योगी आनन्दघनजी उस युग के मतवादी (मताग्रही) गच्छ (पय) वासियो अथवा क्रियाकाण्डियो के मोक्षफल को तथा आत्मज्ञान की अपेक्षा रहित कयन-श्रद्धान-आचरण देख कर या अनुभव करके कहते है, जो लोग मनगढत अटपटी क्रियाओ को धर्म या भगवान् के नाम से पूजाप्रतिष्ठा आदि के ममत्व से सापेक्ष जिनप्रवचन का व्यवहार करते हैं, वे भी एकान्तवादी या अपने ही कल्पित मत को सच्चा मानने वाले साधक समार की वृद्धि करते हैं । जिसे गच्छ, मत, पथ या अपने माने हुए तथाकथित सावध अनुष्ठान का आग्रह नहीं है, जो सम्यक् (आत्म, ज्ञान की वृद्धि की अपेक्षा रख कर जिनप्रवचन-अनेकान्तवाद का व्यवहार करता है; वह आत्मकल्याण की अपेक्षा (मद्देनजर) रखते हुए अनेकान्तवचन बोलता या कहता है, वही समारसागर से पार उतरता है। ___यही कारण है गच्छ-मतादि के आग्रह के कारण जो आत्मस्वरूप-निरपेक्ष आचरण करते हैं, उन्हे देख कर श्रीआनन्दघनजी को व्यथित मन से कहना पडा-'सामली आदरी काई राचो' इस बात को भलीभाति सुन लेने पर भी उसको अपना कर क्यो उसमे मशगूल हुए हो, " . .. , .
उसी व्यवहार की ओट मे देवगुरु-धर्म पर श्रद्धा न रख कर जो क्रिया की जाती है , उसके परिणाम को बताने के लिए अगली गाथा मे कहते हैं