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आत्मा के सर्वोच्च गुणो की आराधना
__ अगली गाथाओ मे परमात्मा में सबसे मुख्य गुण-जिसे गुणशिरोमणि या गुण पारसमणि कहा जा सकता है, जिसके स्पर्श से सर्वगुणसम्पन्नता प्राप्त हो सकती है, उस ज्ञानगुण के विषय मे कहते हैं
सर्वव्यापी कहे सर्वजारगपरणे, परपरिणमनस्वरूप, सुज्ञानी ! पररूपे करी तत्त्वपणु नहीं, स्वसत्ताचिद्रूप, सुज्ञानी ! । ध्रु०॥२॥
अर्थ हे स्वामी ! आपको (परमात्मा के दूसरे दर्शन या धर्म वालो की ईश्वरीय मान्यता की तरह) लो7 सर्वव्यापी (सर्वपदार्थों मे सर्वत्र व्यापक) कहें तो समस्त चराचर के ज्ञाता के रूप में आप सर्वव्यापी हैं, लेकिन सर्वपदार्थों मे व्याप्त मानें तो आप परपरिणमन रूप हो जायेंगे। अगर आप (शुद्ध चेतन) परपदार्थरूप बन जायेंगे तो आपका वस्तुतत्वरूप (चेतनत्व) नहीं रहेगा। अत. तत्वत आप सर्वव्यापी नहीं हैं क्योकि आपकी सत्ता चित्स्वरूप है।
भाष्य
परमात्मा की सर्वव्यापकता क्या, किस गुण से, और कैसे ? पूर्वगाथा में प्रभु के सर्वोच्च गुण और उनकी आराधना का परम लाभ बताया गया था, अब इस गाथा मे पारसमणिरूप ज्ञानगुण और उसके कारण उनकी सर्वव्यापकता के मम्बन्ध मे गम्भीर चर्चा की गई है। सर्वप्रथम हम ज्ञानगुण के महत्त्व के सम्बन्ध मे समझ लें। दूसरे द्रव्यो से आत्मा को अलग करना हो तो ज्ञानगुण को ही लेना पडेगा, ज्ञान ही एक ऐसा गुण है, जो आत्मा को अन्य द्रव्यो से पृथक् करता है । ज्ञान-गुण प्रत्येक ज्ञयपदार्थ के साथ जुड़ कर प्रत्येक ज्ञेय को जानता है, ज्ञात हुए को दूसरो को ज्ञात करा कर उन्हे भी सर्वज्ञाता बना डालता है । अगर आत्मा मे ज्ञानगण न होता तो जगत् मे कौन-कौन-से द्रव्य हैं ? कौन-कौन से तत्त्व है ? कौन-से पदार्थ है ? उनका क्या-क्या स्वरूप है ? यह किह तरह से है ? कैसे है ? कौन स्वगण है, कौन परमाणु है ? स्वभाव क्या है, परभाव क्या है ? मात्मा मे कितनी शक्तियां हैं ? कौन-कौन से गुण हैं ? उनके विकास में साधक-बाधक कौन-से तत्त्व हैं ? हमारी आत्मिक शक्तियो को कौन-कौन-मे पदार्थ कसे-कमे रोकते हैं ? उस रुकावट को कैसे दूर किया जा सकता है ? इन सवका ज्ञान-यथार्थ वोध