Book Title: Adhyatma Darshan
Author(s): Anandghan, Nemichandmuni
Publisher: Vishva Vatsalya Prakashan Samiti

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Page 562
________________ ५४० अध्यात्म-दर्शन भाष्य कामवीर्य की तरह मात्मवीर्य का जवर्दस्त प्रयोगी ही अयोगी होता है जिम प्रकार मोहनीय कर्म के उदय मे वालवीयं वाले इन्द्रियासक्त विषयसुख नोलुप कामी स्त्री-पुरुपो को कामोत्तेजना होती है। जैसे खाने-पीने के शौकीन स्वादलोलुप चटोरे लोग पथ्यकुपथ्य का विचार किये विना चाहे जैसी चटपटी, गरिष्ठ, मसालेदार, तामसी या मिष्टान्न पर हाथ साफ करने को टूट पडने हैं, वैसे ही काम (मैथुन) जन्य सुख में लुब्ध लोग किसी प्रकार का आघा-पीछा विचार किये बिना कामभोग मे उपयोगी शारीरिक वीर्य (बलवीर्य) के कारण कामभोगो (मैथुन) के सेवन मे शीघ्र प्रवृत्त हो जाते हैं। वास्तव मे कामवीर्य एक प्रकार का शारीरिक वीर्य है और उसका उपयोग बालवीर्य की तरह होता है । बालवीर्य से कामभोगो की उत्तेजना होती है, जबकि पुष्टवीर्यपावित उत्तेजना वाली नही होती, अपितु वल, वीर्य और मेधाशक्ति को वढाती है। । कहने का तात्पर्य यह है, कि जैसे वालवीर्य वाला कामभोग की तीव्रता के कारण अपने कामवीर्य के प्रभाव से इन्द्रियविषयासक्तिवश कामभोगो मे जोरशोर से प्रवृत्त होता है, वैसे ही पण्डितवीर्य (आत्मवीर्य =आत्मशक्ति) के प्रभाव से आत्मा जव शुद्धात्मभाव या आत्मगुण अथवा आत्मा के उपयोग मे शूरवीरता रख कर प्रवृत्त होता है, यानी त्रियोगरूप वीर्य के कारण अथवा उनमे प्रवर्तमान आत्मवीयं के कारण जो वीरतापूर्वक अतीव तीव्रता मे आत्मस्वभाव मे-आत्मा के उपयोग मे प्रवृत्त हो जाता है, वह आत्मगुण का या आत्मा का भोगी बनता है। और आत्मगुण को भोगने से यानी आत्मा मे रमण करने से आत्मा मे वीरता आती है, आत्मवीरत्व के गुण से आत्मा के गुणो 'ज्ञान-दर्शन या ज तृत्व-द्रष्टुत्व) का उपयोगी हो जाता है। और 'आत्मगुण में मतत वीरतापूर्वक (तीव्रतापूर्वक) उपयोग से आत्मा अयोगी (मन-वचन काया के योग-व्य.पार से रहित) हो जाता है। निष्कर्ष यह है कि आत्मा अगर शूरवीरता रख कर अपने (आत्मा के) मूलगणो मे ही उपयोगवान् बने तो वह अयोगी बन सकता है । विरोधाभास का स्पष्टीकरण इस गाथा में कुछ शब्द विरोधामास पैदा करने वाले हैं, उनका स्पष्टीकरण कर देना आवश्यक है। आत्मा उपयोगी (जान-दर्शन-चारित्र मे उपयोगवान्)

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