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अध्यात्म-दर्शन
अर्थ उत्कृष्ट (सर्वोच्च) वीर्य (आत्मशक्ति) के वश-प्रभाव से या आचार से अथवा आत्म वीर्य के उत्कष्ट निर्देश (विकास) होने पर, मन-वचन-काया के योगो की क्रिया अथवा पुद्गलो को समय-समय पर प्रहण करने वाली योगो की चपलत वश शुभाशुभ अध्यवसायजनित क्रिया (आत्मा मे) प्रविष्ट नहीं होती। इस प्रकार योगों को निश्चलता (स्थिरता) के कारण (लश्यारूप पद्गल नष्ट हो जाने से) आत्मशक्ति (आत्मा की अनन्तशक्ति) जरा भो डिग नहीं सकती अयवा डिगा नहीं सकती।
भाष्य
वीर्य को उत्कृष्टता योगो को स्थिरता इस गाथा मे श्रीआनन्दघनजी ने अपने मे आत्मवीर्य (वीरता) प्रगट करने और क्रमज मर्वोच्चमीमा तक विकसित करने की बात म त्मविश्वास के साथ अभिव्यक्त की है। वे कहते हैं- आत्मा के प्रत्येक प्रदेश मे अनन्तवीर्य (आत्मशक्ति) है । जब आत्मा अपने उत्कृष्ट आत्मवीर्य को सर्वोच्चमीमा तक (प्रयोग करके) विकसित कर लेता है, यानी जब आत्मा में उत्कृष्ट वीर्य (वीरत्व) खिल उठता है, तब मन-वचन-काया के योगो की प्रवृत्ति उसमे प्रविष्ट नहीं हो सक्ती, अर्थात् उच्न-गुणस्थानक प्राप्त हो जाता है, तब तीनो योग मन्द पड़ जाते हैं और अन्त मे स्थिर हो जाते हैं, आत्मा मे वीर्य (वीरता-शक्ति) बहुत बढता जाता है, विकसित होता जाता है, अनावृत हो कर सर्वोच्चसीमा तक पहुंच जाता है । इस प्रकार योगो की स्थिरता हो जाने पर कमपुद्गलो को ग्रहण करने के रूप मे तमाम क्रिया वद हो जानी है, लेश्या भी नष्ट हो जाती है । उत्कष्ट आत्म-वीर्य से आत्मा अयोगी, अक्रिय और अलेशी बन जाती है। आत्मवीर्य स्वतत्र बन जाता है । तात्पर्य यह है कि उत्कष्ट वीर्य पर योग अपना कुछ भी प्रभाव नहीं डाल सकते । योगो की स्थिरता के साथ आत्मा भी उत्कृष्ट 'रूप से स्थिर होता जाता है। ऐसी दशा मे त्रियोगो के पुद्गल आत्मा पर कुछ भी असर नही कर सकते । पुद्गलो का ग्रहण करना भी बद हो जाता है और योगत्रय छूट जाते हैं, तब आत्मा भी उनसे कोई प्रवृत्ति करा नही सकता । अर्थात् उनकी मदद मे नये कर्म या अन्य कर्मवर्गणाएं ले या लिवा नहीं सकता । पुद्गल और आत्मा दोनो अलग-अलग द्रव्य के रूप मे अलग-अलग और स्वतन्त्र हो जाते हैं। दोनो का कोई सम्बन्ध नही रहता, दोनो एक दूसरे