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अध्यात्म-दर्शन
"जिनेन्द्र अपने आन्मवीर्य (आत्मबल) के आधार पर ही परम (वीतगग) पद को प्राप्त करते हैं। भ महावीर ने भी बताया है कि "सभोग (माधर्मी साधु के साथ महयोग व्यवहार, के प्रत्यारयान में आत्मा आलम्बनो की अपेक्षा खत्म कर देता है, निरावलम्बी साधक के योग आत्मस्थित हो जाते हैं, वह स्वलाभ मे मन्तुष्ट रहता है, दूमरे मे लाम को पाने की अपेक्षा नहीं रखता, न ताकता है, न लालना रखता है, न किसी से याचना करता है, न अमिलापा रखता है। ऐसा करने पर वह मुखशय्या को प्राप्त करके निश्चिन्तता से विचरण करता है।"
इसी प्रकार भ० महावीर ने कहा है-"उपधि (धर्मो करण) के प्रत्याख्यान (त्याग) कर देने से जीव अपरिवहभाव प्राप्त करता है निरुपधिक और निष्काम हो कर वह उपधि के विना मन मे क्लेश (बेचेनी) नहीं पाता।" "सहायक का त्याग (प्रत्याख्यान) कर देने पर जीव एकीभाव को प्राप्त करता है, एकीभावभूत जीव एकत्व का चिन्तन करता हुआ अल्पभापी, थोडी झंझटो वाला, अल्पकलह, अल्पकपाय, अल्पसहकारी, मंयमबहुल, सवरवहुल एव समाहित हो जाता है।" इसी तरह आहार, कपाय, योग, शरीर, अशन आदि के प्रत्याख्यान (न्याग) के सम्बन्ध मे भी भगवान् महावीर का बहुत ही सुन्दर
१ 'समोगपच्चक्खाणेण भते जीवे किं जणयइ ? सभोगपच्चक्खाणेण जीवे
बालवणाइ खवेइ । निरालवणस्स य आययव्यिा जोगा भवति । सएण लाभेण सतुस्मइ परलाभ नो आसादेइ, नो तक्केइ, नो पीहेइ, नो पत्थेइ, नौ अभिलसइ । परलाम अणस्साएमाणे, अतक्केमाणे, अपीहेमाणे, अपत्थेमाणे, अणभिलममाणे, दुज्ज सुहसेज्ज उवसाज्जित्ताणं विहरइ ॥
-उत्तराध्ययन सूत्र अ० २६ सू ३३ २ उवहिपच्चक्खाणेण जीवे अपलिमथं जणयइ। निरुवहिएण जीवे निवकंखी
उवहिमतरेण य न मकिलिसिज्जई । ३७॥ ३. महायपच्चक्खाणेण जीवे एगीभाव जाणयइ। एगीभावभूए य ल जीवे
एगलै भावेमाणे-अप्पसद्दे अप्पयझे, अप्पकलहे, अप्पकसाए, अप्पतुमतुमे, सनमबहुले, संवरवहुले, समाहिए यावि भव ॥३६-
-उत्तराध्ययन सूत्र म० २६, सू० ३७,३६