Book Title: Adhyatma Darshan
Author(s): Anandghan, Nemichandmuni
Publisher: Vishva Vatsalya Prakashan Samiti

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Page 564
________________ ५४२ अध्यात्म-दर्शन २ सासारिक वीर्य-मन-वचन-काया के योगो के मारफत भोगा जाने वाला आत्मा का बल-जिसके कारण क्मं वध जाने से आत्मा को मामारिक अवस्था भोगनी पडती है, अनादिकाल से--मोक्षगमन न हो, वहां तक देव, नारक, मनुष्य और तियंत्र, स्त्री, पुरुप और नपु मक वगैरह का रूप प्राप्त करना पड़ता है और विविधरूप से समार-परिभ्रमण करना पड़ता है समार भोगना पडता है, इस दृष्टि में आत्मा भोगी वनता है। ३. शैलेशीवीर्य या क्षायिकवीर्य-जो रत्नत्रयी की आराधना से, योगो की चपलता कम होने मे, वीर्यान्तरायकम के सवथा क्षय होने से, मेरुपर्वत या सारे विश्व को हिला देने मरीखे क्षायिकभाव से अक्षय आत्मिक वीर्य प्रगट होता है, जिसके कारण आत्मा शैलेश=मेरुपर्वत जैसा स्थिर और सुदृढ हो जाता है, मन-वचन-काया के योगो से रहित अयोगी एव स्थिर हो कर वीर्यवान वन जाता है। इन तीनो मे से पहला वीर्य काममोगी बनाता है, दूसरा ससार का भोगी बनाता है और तोमग आत्मा को अयोगी बना कर मुक्त और सदा स्थिर अनन्त वीर्यवान बनाता है। 'वीरपणु ते आतम-ठाणे, जाण्यु तुमची वारणे रे ।। ध्यान-विन्नारणे, शक्ति प्रमारणे, निजनवपद पहिचारणे रे॥ वीर०॥६॥ अर्थ वीरत्व, जिसे मैं आपसे मांगता था, उसका स्थान (निवास) तो मेरी आत्मा मे ही है, यह हकीकत मैंने आपकी वाणी से ही जानी है। इसका आधार तो मेरे (आत्मा के) ध्यान, विज्ञान अथवा ध्यान के शास्त्रीय ज्ञान और शक्ति की अभिव्यक्ति (वीर्योल्लास) पर निर्भर है। और इसी प्रकार आत्मा अपने वीर्य की स्थिरता, ध्रुवता, वीर्यवल, आत्मशक्ति अथवा अपने ध्रुवपद (मोक्षस्थान) को पहिचान लेता है। भाष्य वीरता का मूल स्थान : अपनी आत्मा ही पूर्वगाथा मे श्रीआनन्दघनजी ने बताया कि 'वीरतापूर्वक आत्मा स्व-स्व-भाव या नात्मगुण में उपयोगी बनी रहे तो एक दिन आयोगी वन

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