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अध्यात्म-दर्शन
समान) गण को द्रव्य-पदार्थमानमा साधयंता=समानमित्व है, इस कारण एक पदार्थ दूसरे पदार्थ मे मिल नहीं जाता, जिस तरह दर्पण या जल मे सामने जलती हुई अग्नि की ज्वाला का प्रतिविम्ब हूबहू पड़ता है, लेकिन दर्पण और जल में वह ज्वाला, घुस नहीं सकती, न ज्वाला में ये दोनो घुस मकने है । दर्पण, जल तथा ज्वाला तीनों में से कोई अपना धर्म (स्वभाव) नहीं छोडता । न ज्वाला से दर्पण व जल गर्म होते हैं और न जल से आग ठी होती है । इस दर्पण-जल के दृष्टान्त से एक दूसरे के पदार्यत्व में एक दूसरे पदार्थ परिणत नहीं होते।
भाष्य एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य ने न मिलने का कारण अगुरुलघुगण पूर्वगाथा मे जो 'श का उठाई गई थी, उसका समाधान इस गाथा मे दिया गया है कि अगुरुलघु नाम का एक गुण ऐमा है, जिसके कारण आत्मा हवा से उड जाय, ऐमा हलका भी नहीं होता और न ही वह पहाड जैसा भारी होता है। जैसे शीशे मे वस्तु घुमती नही, फिर भी हूबहू दिखाई देती है, अथवा जल मे वन्तु प्रविष्ट होती नहीं, फिर भी उसका पूरा-पूरा प्रतिविम्ब पडता है, इमी प्रकार अगुगलपन के कारण आत्मा जयवस्तु मे प्रविष्ट हुए विना समस्त वस्तुओ को हूबहू देख लेता है। अगुरुनघुनामकर्म के उदय से आत्मा वस्तु मे प्रवेश नहीं करता, नथापि उसमे उसका प्रतिविम्ब पडता है, इमलिए परवस्तु का नाश होने पर भी आत्मा के ज्ञानगुण का नाश नहीं होता। जिस प्रकार दर्पण मे और पानी में प्रतिविम्ब या याया को झेलने की योग्यता (शक्ति) रूप समानता है,उसी प्रकार पद्गुणहानि-वृद्धिरूप अपने अगुरुलघुपर्याय गुण को जैसे आत्मा अपने सम्पूर्ण ज्ञान से जान सकता है, वैसे ही यह सामान्य गण प्रत्येक द्रव्य मे एक सरीखा होने से यात्मा अपने से अतिरिक्त अन्य सब पदार्थों को जान-देख सकता है।
आत्मा की सर्वज्ञता के बारे में विशेष स्पष्टीकरण उपर्युक्त उत्तर बहुत ही सक्षिप्त है। इसलिए यहाँ हम ब्योरेवार इस वात को बताने का प्रयत्न कर रह हैं कि 'एक आत्मा का ज्ञान दूसरे सर्वपदार्थों को कैसे जान सकता है ?