Book Title: Adhyatma Darshan
Author(s): Anandghan, Nemichandmuni
Publisher: Vishva Vatsalya Prakashan Samiti

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Page 543
________________ आत्मा के सर्वोच्च गुणो की आराधना ५२१ के अनंतपर्यायी काल) को ले कर आत्मा की सत्ता स्वत्व कभी परानुयायी नहीं होती। आत्मा का स्वकाल अपनी सत्ता को ले कर होता है। भाष्य काल से आत्मा का ज्ञान एव ज्ञेय आत्मा का परपरिणमनरूप मे सर्वव्यापित्व मानने पर दूसरे दोष भी आते हैं, उनमे से कालगत दोष भी है। अतः ज्ञेय का नाश होने पर ज्ञान का भी माश होता है, यानी ज्ञान नाशवान हुआ। समय-समय पर परिवर्तनशील काल की तरह ज्ञेयपदार्थ भी परिवर्तित होते रहते है, उनके भी उत्पत्तिविनाश होते रहते है और इस कारण ज्ञान नाशवान सिद्ध होता है। ऐसा होगा तो प्रारम्भ मे परमात्मा को हमने 'ध्रुवपदरामी' कहा था, वह घटिल नही होगा, क्योकि गुण-गुणी का अभेद है। ऐमा विचित्र परिणाम आए, तब तो जानने वाले ज्ञाता-आत्मा का भी नाश होने की सम्भावना है। ज्ञानी ज्ञान का नाश होने से उमके ज्ञाता आत्मा का भी नाश हो जायगा। इस प्रकार आत्मा भी क्षणिक सिद्ध होगा। परन्तु ऐसा होता नहीं। इसका ममाधान करते हुए गाथा के उत्तरार्ध मे कहा है- 'स्वकाले करी स्वसत्ता सवा, ते पररीते न जाय' अर्थात्-पदार्थ की स्वसत्ता अपने काल की अपेक्षा से सदा-सर्वदा होती है। यानी वह स्वकाल की सत्ता दुमरे काल के रूप मे नही जाती, स्वय भी दूसरे रूप में नहीं जाती। यदि पर का काल म्व का काल बन जाय तो फिर स्व और पर मे कोई भेद ही नहीं रहेगा। इसलिए अपनी सत्ता अपने-अपने काल की अपेक्षा से है । यदि ऐसा नहीं माना जाएगा, तो घटादि अनित्य ज्ञेयपदार्थों का नाश होते ही ज्ञान भी नष्ट हो जायगा। इस तरह ज्ञान और ज्ञान का आश्रयभूत आत्मा भी नाशवान सिद्ध होता है। इमलिए यह माना गया कि स्वकाल में आत्मा का अनादि-अनन्तत्व होने से स्वसत्ता से चैतन्य ज्ञानगुण का रूपान्तर होता है। वास्तव मे ज्ञेय का सर्वथा नाश नहीं होता है, केवल पर्याय-परिवर्तन होता है, उस समय उसका ज्ञान भी बदल जाता है, सर्वथा नष्ट नहीं होता। मतलब यह है-ज्ञेयपदार्थ के पूर्वपर्याय का नाश हो कर वह अपरपर्याय धारण करता है, तव पूर्वपर्याय का झान भी परपर्यायरूप बन जाता है। इस दृष्टि से आत्मा का और आत्मा के ज्ञानगुण का नाश नहीं होता। काल की अपेक्षा से ज्ञेय की अतीत और

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