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परमात्मा मे शान्ति के सम्बन्ध मे समाधान
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सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ग्रहण किये जाते है , लेकिन वे भी वीतरागता और समता के पोपक हो, तभी उपादेय हो सकते हैं। यदि तथाकथित सम्यग्दर्शन के नाम से कलह कदाग्रह, एकान्त एव अधश्रद्धायुक्त मिथ्या मान्यताएँ आलम्बन के रूप मे स्वीकार करने का कोई कहे, सम्यग्ज्ञान के नाम से उन्मार्गगामी, अन्धविश्वासयुक्त, अथवा भौतिकज्ञान या मिथ्याज्ञान अथवा अनिष्ट सावद्यमार्ग पर ले जाने वाले विषमतावर्द्धक ज्ञान या शास्त्रो को आलम्वन के रूप मे थोपना चाहे अथवा सम्यक्चारित्र के नाम से कोई युगवाह्य, निरर्थक,सवर प्रतिपक्षी, सद्धर्म से विपरीत, वृथाकष्टकारी क्रियाएँ आलम्बन के रूप मे लादना चाहे तो वह शुद्ध (व्यवहारदृष्टि से) आल म्बन नहीं हो सकता। यद्यपि पूर्णत शुद्ध एव उपादेय आलम्बन तो आत्मस्वरूपलक्ष्यी स्वरूपरमण ही हो सकता है, क्योकि वही नित्य है, शुद्ध और अभिन्न आलम्बन है। इस प्रकार का प्रतिपादन स्वय आनन्दघनजी अगली गाथाओ मे करेगे। किन्तु जब तक शरीर है, तब तक व्यवहारदृष्टि से जल सन्तरण के लिए नौका की तरह सुदेव, सुगुरु या सद्धर्म आदि मोक्ष, परमात्मा या शुद्धस्वरूप की ओर ले जाने वाले पुष्ट या पवित्र आलम्वन भी कथचित् शुद्ध एव उपादेय हो सकते हैं। परन्तु वे आलम्बन नदी पार होने के बाद नौका को छोड देने की तरह वीतरागधारित्र की भूमिका पर या उच्च गुणस्थान मे आरूढ हो जाने पर त्याज्य होते है। जैसे एम० ए० पढ़े हुए विद्यार्थी के लिए उससे पहले की कक्षाएं या पाठ्यपुस्तके छोड़ देनी होती हैं। वैसे ही उच्चश्रेणी पर पहुंचे हुए माधक को नीची श्रेणी के रामय लिये जाने योग्य आलम्बन छोड देने चाहिए। इसीलिए श्रीआनन्दधनजी ने स्पष्ट कहा है-'शुद्ध आलम्बन आदरे, तजी अवर जजाल रे' । तात्पर्य यह है कि आलम्बन के नाम से प्रपचमय, रागद्वेपवर्द्धक, मायाजाल में फंसाने वाले, वीतरागता से विमुख करने वाले आलम्बन, चाहे जितने पवित्र नाम से कोई थोपना चाहे, उन्हे जजाल समझ कर छोड दो ।
अथवा शुद्ध आलम्बन का व्यवहार दृष्टि से यह अर्थ भी हो सकता हैशुद्धरूप से आलम्बन यानी देव, गुरु, धर्म आदि भी सच्चे हो, लेकिन उन्हे गलत रूप से, स्वार्थ, दम्भ, छल छिद्र, आडम्बर एव यशोलिप्सा, पदलिप्सा
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