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परमात्मा से शान्ति के सम्बन्ध में समाधान
म्परा के होगे तो ब्रह्मचर्य के उत्तग अस्कारो मे ओतप्रोत गुरुकुल मे रह कर उन्होंने अपना जीवन-निर्माण किया होगा; इसमे गव्य जिज्ञासु को शान्ति की प्राप्नि अनायास ही होगी। मतलब यह है कि कुमग का त्याग और सुमग का आश्रय लिया जाय, जिसमे शास्त्रयोग प्राप्त हो, सिद्ध और सफत हो ।
सामर्थ्य-योग का धारण . शान्ति का कारण इसी प्रकार शान्तिवाञ्छुक साधक ऊपर चढता-चढता सामर्थ्य- योग चित्त मे धारण करे, जो मुक्ति का प्रबल कारण है। सामर्थ्ययोग का अर्थ हैआत्मा मे इतनी शक्ति (सामर्थ्य) प्रगट करे, जिससे अप्रमत्त माधक हो कर आत्मा मे असख्यकाल से निहित विपयकपायादि दुष्ट भावो को छोडे । यही कारण है कि सामर्थ्ययोग उच्चगुणस्थानो मे प्राप्त होता है । इसके मुख्यतया दो भेद-धर्मसन्यासमामर्थ्य योग और योगसन्याससामर्थ्ययोग। ७वाँ गुणम्थान छोडने से ८वा गुणस्थान प्राप्त होने पर धर्मसन्यास-सामर्थ्ययोग आता है, जिसमे सातवे गुणस्थान तक करने के वाह्य धर्मानुष्ठानं छोड देने होते हैं, जबकि योगसन्यासमामयंयोग मे १३ वे गुणस्यान का अन्तमुहर्न काल वाकी रहता है, तब मन-वचन-काया के-निरोध करने की क्रिया शुरू होनी है । वहाँ से ठेठ शैलेशीकरण के अन्तिम समय तक की अवस्था होती है । अथवा यहाँ 'योगसामर्थ्य' शब्द भी हो तो उसका अर्थ होता है--- मन, वचन, काया के योगो पर काबू करना या इन तीनो का सामर्थ्य वताना । अपने सयोग, सामर्थ्य, उत्साह और आरोग्य को देख कर साधक जितना हो सकता है, उतना आत्मशक्ति प्रगट करने मे तत्पर होता है ।
१ वसे गुरुकुले निच्च (सदा गुरु के निकट निवास करे)-उत्तरा० १० २ कहा भी है
वल थामं च पेहाए सद्धामारुगमप्पणो । खित्त काल च निन्नाय तहप्पाण निउजर-दश ० अ० ८ जोग च तमणधम्मम्मि जुजे अगलसो धुव ।
जुत्तो अ समणधम्मम्मि अटु लहइ अगुत्तर ।। दश० अ८ साधक अपना वल, उत्साह श्रद्धा, आरोप, क्षेत्र और काल देव कर अपनी आत्मा को माधना में जुटा दे। सापक आनन्धरहित हो कर स श्रनग धर्म मे अपने योग को लाए। धनगधर्म में लग हुए मारक की जात्मा अश्य ही अनुतर मुख (शान्ति) रूप अर्थ (लक्ष्य) को प्राप्त करती है ।