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ध्येय के साथ ध्याता और ध्यान की एकता
पधारने और रथ को वापिस मोड़ने के लिए विभिन्न वक्रोक्तियो, युक्तियो, प्रयुक्तियों, हेतुओ, व्यंग्यो, आदि का प्रयोग करती है, वैरागी नेमिनाथ को अपनी ओर खींचने के लिए। परन्तु उसमे मफलता नहीं मिलती है तो वह सीधे उनको वीतरागता और ब्रह्मचर्य पर आक्षेप करती है, लेकिन नेमिनाथ की अपने ध्येय मे अटलदशा (आत्मनिष्ठा) देख कर वह हताश हो कर आत्ममन्थन करती है, जिसके फलस्वरूप उसके मोह का पर्दा दूर हो जाता है, वह नेमिनाथप्रभु के वीतरागता ऐव साधुना के मार्ग का अनुसरण करती है और एकनिष्ठ ध्यान से ध्येयाकार हो जाती है। अन्त मे ध्याता के लिए राजीमती की तरह एक स्वामित्वनिष्ठा से ध्येय का ध्यान करना आवश्यक बताया है, जिसका सकेत श्रीआनन्दघनजी ने अन्तिम गाथा में किया है। इस सम्पूर्ण स्तुति का उद्देश्य और सार है-सच्ची एकनिष्ठा, ध्येय के प्रति ध्याता की एकाग्रता।