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अध्यात्म-दर्शन
उनको दृष्टि मे आत्मा के अनन्तपर्यायो को अपेक्षा से अनन्तभेद प्रतिभामित होते हैं।
भाष्य
निश्चयष्टि और व्यवहारष्टि से आत्मा का कयन पूर्वगाथा मे भी आत्मा के अनेक और एक भेद बता कर अन्त में निर्विकल्पदशा प्राप्त करके आत्मा के आत्मत्त्व का ध्यान करने और उसे प्राप्त करने की बात पर जोर दिया गया है। उससे यह भी ध्वनित हो जाता है कि आत्मा के ये जो अनन्त पर्याय इस समय दिखाई दे रहे हैं, इन्हें दूर करके इनकी असली स्थिति से निरावरण, एकाकी आत्मा म ही सोने की तरह विचार करना और अन्त में उसे ही प्राप्त करना चाहिए । अब इस गाया मे पुन दोनो दृप्टियो मे आत्मा का प्रतिपादन करते हैं। वास्तव में निश्चय और व्यवहार दोनो अपनी-अपनी जगह पर ठीक है। कोरे निश्चय से मी काम नहीं चल सकता , क्योकि माधक को चलना व्यवहार की धरती पर है। निश्चय के आकाश में उड़ने के लिए व्यवहार की धरती पर पहले पैर जमाना नावश्यक है। निश्चय के पर्वत-शिखर पर चढने के लिए व्यवहार की तलहटी से ही आगे कदम वढाना होता है। इसलिए निष्कर्ष यह निकला कि साधक की आंखें निश्चय की ओर टिकी हो, और उसके पैर टिके हो-व्यवहार की धरती पर । एकान्त निश्चय की ओर देखते रह कर व्यवहार को दृष्टि से ओझल नही करना है, तयैव एकान्त व्यवहार की धरती पर चलते रहने की धुन मे निश्चय को आँखो से ओझल नहीं करना है। साधक जब तक ससारदशा मे है, तब तक दोनो दृष्टियो का उसे उपयोग करना है, किन्तु प्रगति की दिशा में आगे बढने और आध्यात्मिक गगन मे ऊँचे उडने के लिए उसे निश्चयदृष्टि को मुख्यता देनी होगी, क्योकि वास्तविक सद्भूतार्थ मार्ग निश्चय की पगडडी को पकडने से ही प्राप्त होगा।
वास्तविक दृष्टि से आत्मा एकरूप भी है और अनेकरूप (अनन्तरूप) भी है । परन्तु परमार्थदृष्टि के साधक उसे एक रूप में देखते हैं, वे उसे एकतन्त्र मे-आत्मा के एकत्व मे-देख कर प्रसन्न होते हैं, जबकि व्यवहारदृष्टि के साधक उसे अनन्तरूप मे देखते हैं । परमार्थपथ (निश्चयनय) के साधक विकल्प