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२० : श्री मुनिसुव्रतजिन-स्तुति
परमात्मा से आत्मतत्व की जिज्ञासा
(तर्ज-राग काफी 'आधा आम पधारों पूज्य !') , . श्रीमुनिसुव्रत-जिनराज । एक मुझ विनति निसुलो ।। मु० ॥ व॥ आतमतत्व कयु जाण्यु, जगद्गुरु ! एह विचार मुझ कहियो । आतमतत्व जाग्या विरण निर्मल-चित्तसमाधि न वि लहियो॥
श्रीमुनिसुव्रत० ॥१॥
अर्थ इस अवसर्पिणीकाल के वीसवें तीर्य कर श्रीमुनिसुवतदेव ! जिनराज प्रभो। मेरी एक प्रार्थना सुनिये । हे जगद्गुरो | आपने शुद्ध आत्मतत्व (परमात्मस्वरूप) किसे जाना ? अथवा मैं किसे जानू ? यह तत्वज्ञान (विचार) मुझे कहिए । क्योकि शुद्ध आत्मतत्व को जाने बिना में अपने मन को निर्मल निरूपाधिक समाधि, स्थिरता, एकाग्रता या धीरता नहीं प्राप्त कर सकता।
, भाष्य
आत्मतत्व की जिज्ञासा क्यो और किससे ? पूर्वस्तुति मे सर्वज्ञ वीतरागप्रभु की पहिचान के लिए १८ दोष से रहित होने की कसौटी बताई थी, किन्तु जब तक उस शुद्ध आत्मा की पहिचान न हो, उसका स्वरूप क्या है ? और उसके विषय मे विभिन्न अध्यात्मवादी क्या क्या म नते हैं ? यह प्रश्न हल न हो जाय तव तक सर्वज्ञता और वीतरागता की वात कसे हल हो सकती है ? इसलिए इस स्तुति मे परमात्मा के सामने भक्त योगी ने अपनी जिज्ञासा प्रस्तुत की है-आत्मतत्व कयु जाण्यु ? वीतराग प्रभो आपने आत्मत्तत्व किसे या कैसे समझा ? अथवा मैं उस आत्मतत्व को
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१ 'जाण्य' के बदले किसी प्रति मे 'जाणु' शब्द भी मिलता है, उसका अर्थ । होता है-प्रभो ! मैं आत्मतत्व किसे जानूं ?