Book Title: Adhyatma Darshan
Author(s): Anandghan, Nemichandmuni
Publisher: Vishva Vatsalya Prakashan Samiti

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Page 492
________________ ४७० अध्यात्म-दर्शन या प्रत्येक अग को अपनी आत्मा मे रमा कर आराधना करते हैं-आज्ञा पालते हैं । वे ही वास्तव मे जनदर्शन के आराधक होते है। भाष्य जैनदर्शन : वीतराग का उत्तमांग छठे अग के रूप मे जैनदर्शन को वीतराग-परमात्मा का उत्तमाग=मस्तक कहा गया है । वह समयपुरुष के मस्तक के समान कहा है। इसका कारण यह नहीं है कि श्रीआनन्दधनजी जैन थे, इसलिए उन्होंने जनदर्शन को उत्तम अग के रूप में बताया है। अपितु इसका कारण यह है कि जैनदर्शन किसी वस्तु को सिर्फ एक ही, एकागी दृष्टि से नहीं देखता, किसी भी विषय पर उसके सभी दृष्टिविन्दुओ को मद्देनजर रख कर तदनुकूल नयसापेक्ष क्यन करता है, तथा इस दर्शन में सभी विचारधाराओ को यथायोग्य स्थान दिया गया है, सभी पर मत्यप्राही दृष्टि से विचार किया गया है, इस कारण इसे उत्तमाग कहा गया है। शरीर के अवयवो मे मस्तिष्क का स्थान सर्वोपरि, अनिवार्य और उत्तम इसलिए बताया गया है कि वह सभी अवयवो को विचार देता है, शरीर मे मस्तिष्क न हो तो मभी अवयव वेकार हो जाते हैं, इसी प्रकार जनदर्शन सभी दर्शनो को यथायोग्य स्थापन करने वाला है । यह नही होगा तो सभी दर्शन एकागी . व एकान्त वन कर सापेक्षवाद को भूल कर अपनी-अपनी ढपली और अपनाराग अलापने लगेंगे । इसलिए जैनदर्शन उस उच्चस्थान को अपनी योग्यता के कारण ही पा सका है। इस उच्चता को प्राप्त करने में उस पर कोई मेहरवानी नहीं की गई है, अपितु, उसने वास्तविक रूप मे ही इसे प्राप्त किया है। और अपनी महिमा और योग्यता भी सिद्ध कर दी है। जैनदर्शन की यह विशेषता है कि वह सभी दृष्टिबिन्दुओ के उपरान्त प्रमाणसत्य को स्वीकार करता है, इस कारण सर्वथा उत्तम है। जैनदर्शन का अतरग और बहिरग' जैनदर्शन के दो अंग हैं- अन्तरग और बहिरंग 1 रागद्वेष का सर्वथा' त्याग करके आत्मा के गुणो को प्रगट करना इसका अन्तरग है तथा वाह्यक्रियाएं करता, समचारी का ऊपर-ऊपर से पालन करना एव चरणसत्तरी व करणसत्तरी का पालन यह वहिरग है। इसमे अन्तग्गविभाग मे वैराग्य एव आत्मा के

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