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वीतराग परमात्मा के चरण उपासक
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प्रश्न होता है - यदि श्रीआनन्दघनजी को अपनी परख के अनुसार वैसे मुगुरु न मिले नो न सही, वे अपने अन्त करण से सत्य समझ कर क्रिया या साधना करने, क्या जरूरत थी. उन्हें मुगुरु की या सुगुरु के सम्बन्ध मे विचार करने की ? आनी मस्ती मे रहते और यथेष्ट साधना करते । इसका उत्तर स्वय वे ही दे देते है-'किरिया करी नवि साधी शकीए' । श्रीआन दधनजी वर्तमानयुग के तथाकथित साधको की तरह उच्छृ खल नही थे, न स्वेछाचारवादी थे, वे योग गुरु के मार्गनिर्देश न मे साधना करने के पक्ष मे थे । सुगुरु के योग्य मार्गदर्शन प साधना करने से समय-समय पर साधना के मार्ग में आई हुई अडचने दूर हो सकती हैं, वे योग्य मार्गदर्शन दे कर मार्गभ्रष्ट साधक को ठिकाने ला सकते हैं । परन्तु श्रीआनन्दघनजी को ऐसे सद्गुरु की ओर से मार्गदर्शन, यथार्थ परम्परानुभव नही मिल सका, इसी बात का खेद वे प्रभु के सामने प्रगट कर रहे हैं । सद्गुरु के अभाव मे योग्य मार्गदशन या प्रेरणा न मिलने से मोक्षफलदायिनी क्रिया करके वे लक्ष्यसिद्धि नहीं कर सके। परिणामस्वरूप साध्य को सिद्ध न करके, बाह्यक्रियाएं करके पुण्यबन्ध मे ससार भ्रमण ही कर पाए । वास्तव मे ऐसी थोथी क्रियायो से सिवाय पुण्यप्राप्ति के अधिक प्राय मिलता नहीं, इसी बात का खेद या विषवाद रहा करता है । ऐसा लगता है कि इतनी मत्र क्रियाएँ करते हुए भी उनसे मोक्षप्राप्तिरूप फल तो सिद्ध नहीं होता, सिर्फ सासारिक पौद्गलिकप्राप्ति मिल जाती है। यानी मेहनत पहाडभर है, फल राई के दानेभर है । इनका कारण सद्गुरुदेव की कृपादृष्टि या सत्प्रेरणा का अभाव है।
"ऐसे सद्गुरु के अभाव की खटक केवल मेरे मन मे ही नहीं, मेरे सभी सभी साधकसाथियो या मुमुक्षुओ के दिलमे भी इसकी वही खटक है। प्रभो । आप अन्तर्यामी हैं, आपके सामने अपनी गलती या विषाद की बात का स्वीकार करने में मुझे जरा भी सकोच नही है । मुझं स्वय इस बात का खेद है। अत अब आप ही सुझाइए कि मुझे क्या करना चाहिए ? इस प्रकार की प्रार्थना वे अन्तिम गाथा मे करते हैं
ते माटे ऊभो कर जोड़ी, जिनवर आगल कहीए रे। समय-चरणसेवा शुद्ध देजो,जिम आनन्दघन' लहिर रे॥
षड्॥११॥