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ध्येय के साथ ध्याता और ध्यान की एकता
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तीर्थंकरो के शिक्षण से विरुद्ध है, अत यह आचार आप को शोभा नहीं देता।"
आध्यात्मिक दृष्टि से जब हम इस पर विचार करते हैं तो इसका समाधान तुरन्त हो जाता है कि पशुओ के प्रति भगवान् की जो दया थी, वह किसी राग या मोह से प्रेरित हो कर नही थी, वह तो सर्वजीवहित की दृष्टि से थी, मनुष्य
और जिसमे भी रागाविष्ट प्रेमिका के प्रति दाम्पत्यप्रेम के वश हो कर दया करते तो वह रागयुक्त होती। आप राग-द्वप में आसक्त न होन से वीतराग और महाकरुणालु है । तराग स्थितप्रज्ञ पुस्प बाह्यचित्तवृत्ति की ऐसी रागात्मक पुकार को नही सुनते। ।। ४ ।।
उससे बाद दूसरा उपालम्भ राजीमती का यह है कि आठ आठ भवो से जिस प्रेमरूपी कल्पवृक्ष को आपने सोच-सोच कर बडा किया था और इस जन्म मे भी मेरे साथ वाग्दान होने एव मेरे साथ विवाह करने की स्वीकृति देने के बाद कई जन्मो से पुष्पित- फलित हुए इस प्रेममय अन्त करणरूपी कल्पतरु को आपको सोचना था, उसके बदले आपने समूल उखाड डाला और उसके बदले उदासीनता के प्रतीक वैराग्य का नशा पैदा करने वाले योगरूपी धतूरे को आप आरोपण करने लगे । बनिहाती है आपकी चतुराई की । आपकी अक्न भला कैसे गुम हो गई ? कौन ऐमा शूरवीर या जगत् का शूल ( काटा) गुरु आपको मिल गया, जिसने इस प्रकार की अक्लमदी आपको दिखाई है ? ऐसी चतुराई की अक्ल देने वाला कौन जगत् के सूर्यसमान गुरु मिल गया ?
राजीमती एक व्यवहारचतुर त्री की तरह बात कर रही है, वह वकोक्ति की भापा मे साफ कह रही है, जैसे एक मोहप्रेरित नारी कहती है । कल्पवृक्ष समस्त इच्छाओ को पूर्ण करने वाला होता है। प्रेम को कल्पवृक्ष की उपमा इसलिए दी है कि उससे सभी सासारिक मनोकामनाएँ (पुत्र, धन, परिवार, स्त्री अदि) पूर्ण होती हैं, और नेमिनाथ के मुक्ति-सुन्दरी के प्रति प्रेम को धतूरा बोने
की उपमा दी है। उसका कारण यह है कि मुक्तिसुन्दरी से प्रेम करने पर वह • न तो सन्तानसुख दे सकती है, न और कोई सासारिक कामना ही उससे पूरी हो सकती है । उलटे, वह तो वैराग्य का नशा भले ही चढा दे. सो नेमिनाथस्वामी को चढा ही दिया है । उसी नशे मे वे अपनी अष्टजन्मपरिचिता जानी मानी प्रेमदीवानी राजीमती को प्रेम को छोड़ रहे हैं, प्रेमकल्पतरु को उखाड रहे हैं।