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ध्येय के माय ध्याता और ध्यान की एकता
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मैं सोचने लगी कि इस समय के आपके लक्षणो को देखते हुए तथा आप मेरे प्रेम का जवाब नहीं देते, इसलिए मेरी सखी की जो धारणा थी, वह सच्ची मावित हुई। भले ही वह सामुद्रिकशास्त्र नही जानती थी, लेकिन उसकी शका पर से यह माबित हो गया कि आप जैमे ऊपर से काले हैं, वैसे लक्षणो से भी काले है। क्योकि काले आदमियो के काले काम होते हैं। आप स्वयं मेरे कथन के कारण पर सहानुभूतिपूर्वक विचार करेंगे तो आप स्वयमेव मेरी सखी के कयन की सच्चाई को माने विना न रहेगे।" ___ वास्तव मे अध्यात्मदृष्टि मे हम पर सोचा जाय तो ऐमा स्पष्ट प्रतीत होगा कि राजीमती की मखी झूठी थी, वह स्वय सच्ची थी। क्योकि वे तो १००८ उत्तम लक्षणो से सुशोभित, विश्ववन्ध, जगत्पूज्य तीर्थंकर के उत्तम गुणो मे युक्त हैं । राजीमती अपने आपको तीथंकर नेमिनाथ की आध्यात्मिक पथ की सहचरी होने के नाते धन्य मानती है । ___अब अगनी दो गाथाओ मे राजीमती व्यग्यात्मक भाषा मे नेमिनाथ के जीवन मे परस्पर विरोधाभाम स्पष्ट प्रकट करती हैं
रागीशु रागी सहु रे, वैरागी श्यो राग ? मन०। राग विना किम दाखवो रे मुगतिसुन्दरी माग; म० ॥११॥ एक गुह्य घटतु नथी रे, सघलो जारणे लोग, म०। अनेकान्तिक भोगवो रे, ब्रह्मचारी गतरोग, म. ॥१२॥
अर्थ राग वाले के साथ तो सभी रागी बन जाते हैं, मगर जो मनुष्य वैरागी हो, वह क्यों किसी के साथ राग करेगा ? (आप अपने भापको वैरागी मानते हो;) परन्तु अगर राग नहीं है, तो आप (अपने भक्तो को) मुक्तिसुन्दरी (को पाने) का मार्ग कैसे बताते हो ? दूसरो को मार्ग बता कर तो माप स्वयं उसके प्रति राग रखते मालूम होते है ।"॥११॥ हे नाथ | आपकी एक गुप्त बात सगति नहीं लगती। उसे सारी दुनिया जानती है । वह यह कि आप अनेकान्त-बुद्धिरूपी नारी का उपभोग करते हैं, जबकि आप रोगरहित बाल-ब्रह्मचारी कहलाते हैं।