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ध्येय के साथ ध्याता और ध्यान की एकता
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मोड लिया जाता है, परमात्मा के वीतरागस्वरूप को पहिचानते हुए भी रागाविष्ट करने की कोशिश की जाती है, फिर १४ श्री गाथा से राजीमती की मोहदशा कम हो जाती है, वह परमात्मा की वीतरागदशा का ध्यान करके स्वकर्तव्य का विचार करती है, स्त्रय परमात्मपद का ध्यान करके ध्येय के निकट पहुंच कर परमात्मा मे लीन हो जाती है, भगवान् नेमिनाथ की मुक्ति से ५४ दिन पहले राजीमनो सती मुक्ति मे पहुँच जाती है । अर्थात् ध्याता राजीमती अपने स्वामी नेमिनाथ के चरणो का अनुसरण करके उनसे पहले ही अपने ध्येय-परमात्मा मे विलीन हो जाती है।
योगी श्रीआनन्दघनजी इसी प्रकार मोहादि पड्विकारो से पर हो कर मुक्तिपदप्राप्ति के इच्छुक भव्यमुमुक्ष आत्माओ को इस स्तुति द्वारा यही बोध दे रहे हैं कि वाह्य ध्येय तो निमित्त रूप ही होता है, सच्चा और अन्तिम ध्येय तो ध्याता के शरीर मे रहा हुआ आत्मतत्त्व ही है। इसलिए इस निमित्त का नाममात्र को अवलम्बन ले कर भी भव्यात्मा को म्व-आत्मतत्त्व के साथ ही एकता सघनी है । ऐमा होने से ध्याता और ध्येय की एकरूपता हो जाती है, जो इस स्तुति का बास प्रयोजन है।
दूसरी एक महत्त्व की वस्तु इम स्तुनि मे गुप्त रहस्य के रूप मे शुद्धनिश्चयनय की दृष्टि से यह मालूम हाती है कि आत्मा जब भौतिक इन्द्रियो के भोगोपभोगो का त्याग क के आत्मदृष्टि मे स्थिर होने का प्रयत्न करता है, वह वहिमुखी इन्द्रियरूपी चित्तवृत्ति उसे अपने में रमण करते रहने के लिए ललचाती है, विविध मोहक प्रलोभनो (वचनो) से उसे खीचने का प्रयास करती है । परन्तु स्थितप्रज्ञ आत्मा जब उन वहिर्मुखी इन्द्रियो के भ्रामक मोह (बाग्) जाल मे नही फेम कर आमदृष्टि मे ही स्थित होने का दृढ प्रयत्न करती है, तब बहिमुखी बनी हई वह चित्तवृत्ति ही अन्तर्मुखी हो जाती है। यह वित्तवृत्ति भी आत्मा के इस ऊध्वगामी पद को प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील हो जाती है। फलन वह अन्तर्मुखी चित्तवृत्ति आत्मा के परमानन्द मे मिलने से पहले ही आत्मस्थित वन कर परमानन्द प्राप्त कर लेती है।
इस तथ्य को महात्मा आनन्दवन जी ने इस स्तुति मे रूपक के माध्यम से कथ्य के रूप मे बहुन ही सुन्दर ढग से प्रस्तुत किया है । बहिर्मुखीवृत्ति वाली राजीमत्ती के मुख से वहिर्मुखी बनी हुई चित्तवृत्ति सरीखे ही ताने, आक्षेप