________________
४६८
अध्यात्म-दर्शन
व दु खो से ऊब (घबरा) कर वहां की जनता में आध्यात्मिक रुचि जगी है। इस कारण यह दर्शन भी जगत् में विस्तृत है जगत के अनेक लोगो को नीति का पाठ पढा कर यह अध्यात्म की भूख जगाता है। इसलिए इस दर्शन को जिनवरतत्व-ज्ञान का उदर कहा है।
तत्त्वज्ञान के प्राथमिक अभ्यास के लिए प्रवेश करने वाले जिज्ञासु को शरीर और आत्मा, इन दोनो मे से शरीर ही निकटवर्ती एव प्रत्यक्ष दिखाई देने से इसके पचभौतिक स्थूलरूप का सर्वप्रथम ज्ञान चार्वाकदर्शन करा देता है, इस प्रकार विश्व का सर्वप्रथम तत्वज्ञान होने पर उस पर से जिज्ञासु आगे बढ सकता है, किन्तु प्राथमिक तत्वज्ञान मे ही प्रवेश न हो तो वह आगे कैसे बढ़ सकता है ? इस दृष्टि से चार्वाक दर्शन भी प्राथमिक तत्वज्ञान-प्रवेश मे सहायक होने से जिनवर-दर्शन का उदररूप एक अग माना गया है। भले ही वह अनुमानादि प्रमाणो को न माने, सिर्फ एक प्रत्यक्षप्रमाण को माने, परन्तु एक प्रमाण को भी प्रमाणरूप मे मानेगा तो उसे कभी न कभी दूसरे प्रमाणो को मानने-समझने का मौका मिलेगा, इतना भर यह जनदर्शन का अग माना जाय तो अनुचित नहीं होगा।
योगदृष्टि से जब उदर पर विचार करते हैं तो एक महत्वपूर्ण बात प्रतीत होती है । उदर मे नाभि एक ऐसा केन्द्रस्थान है,जहां से कु डलिनी' जागृत होने पर छही चक्रो का भेदन हो सकता है। आत्मा के विकास का साक्षी एव प्रमाण यही स्थान है, जहां से चारो ओर सभी नाडियां फैली हुई हैं। सबको यही से बल, बुद्धि, और विकास की स्फुरणा मिलती है, इसलिए चार्वाकदर्शन को समयपुरुष का उदररूप अग बताना भी उचित है। वह प्रत्यक्षभूत इस साधना के लिए प्रेरणा करता है और कहता है, अगर इस साधना को सिद्ध कर लोगे तो तुम्हारी पाचो इन्द्रियो के विषय की तृप्ति अन्दर ही अन्दर हो जाएगी, अमृत का वह झरना, आनन्द का वह स्रोत तुम्हारे अन्दर ही फूट पडेगा, जिससे तुम्हें फिर बाहर की भूख-प्यास नही सताएगी, और न ही इन्द्रियो के विविध मोहक विषयो की ओर तुम्हारी रुचि रहेगी । तुम अपने अन्तर मे ही तृप्त हो जाओगे। हाला-कि यह सब अनुभव की बातें हैं, लेकिन ये सब परोक्ष नही हैं । इसलिए चार्वाक कहता है-यही और इसी जन्म मे इस साधना के द्वारा