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अध्यात्म-दर्शन
-संग्रह नजर नहीं जाता । बौद्ध साहित्य में भी प्राय मध्यमकोटि के धर्मोदेिश हैं। वैदिक साहित्य मे उनिपदविमाग महत्वपूर्ण है. उसके सिवाय किसी पदार्थ की व्योरेवार स्पष्टता वेदो, पुगणो आदि में नहीं प्रतीत होती । इसमे कुरान वाइ विल,अवेस्ता, ग्रन्यमाहव आदि अन्य अनेक धर्मों के मूलभूत धर्मग्रन्य प्राय.' अपने-अपने धर्म-सम्प्रदाय तक के मीमित दायरे का ही विचार करके इतिसमाप्ति कर देते हैं। वैसे तो जनदशन इतना उदार है कि उन -उन धर्मग्रन्यो मे जो भी बोडी-बहुत अच्छी आत्महितकारी, यथातथ्य बातें होती हैं, उन्हें आदरपूर्वक स्वीकार करता है, जैमा कि पहले : दर्शनो को जिन-अप बना कर उनका यथायोग्य मूल्याकन करने का जोर, शोर से प्रयल किया गया है।
भगवान् की चरण-उपासना के सन्दर्भ मे छही दर्शनो की आलोचना या निन्दा किये बिना तहदिल से अपनाने पर बल दिया है । किन्तु जब तक उसका कोई उच्च सालम्बन ध्यान न बता दिया जाय, तब तक पूर्णतः भगवच्चरणोपासक कोई कैसे बन सकता है ? इसी बात को लक्ष्य में रख कर इस गांचा मे समय पुरुप के अग बता कर उनकी आराधना करने की बात कही गई, अगली गाया मे इसी शास्त्रज्ञान पर सालम्बन पदस्यध्यान की प्रक्रिया वाते हुए कहा है
मुद्रा, बीज, धारणा, अक्षर न्यास अविनियोगे रे। जे घ्यावे ते नविवचीजे, क्रिया-अवचक भोगे रे ॥ पड़० ॥६॥
अर्थ मुद्रा (विविध आराधनाओ के लिए शरीर की पृयक् पृथक् आकृति), बीज (मंत्र का मूल बीजाक्षर या वोजक), धारणा (इन्द्रियजय के बाद और ध्यान की पूर्वभूमिकारूप पार्थिवी आदि धारणाएं), अक्षरन्यास (अष्टकमलदल या अन्यत्र क, च, ट, त,प इत्यादि मत्राक्षरो की स्थापना करना), अर्य (अर्थ, भावार्थ का आलम्बन), दिनियोग (स्वय जानी हुई चीज योग्य पात्र को बता कर बोध कराना, गुरुगपूर्वक देना) इस प्रकार इन ६ मालम्बनों द्वारा (श्रीवीतरागदेव रूप या समयपुत्परूप ध्येय का) जो भव्यसाधक ध्यान करता है, वह वचित (ठगाता नहीं होता। और वह फ्रियाऽवचकत्व का उपभोग करता है, अर्थात् उसे वह प्राप्त हो जाता है।