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अध्यात्म-दर्शन
मीमासक वेदान्ती आत्मा को अभेदरूप (अभिन्न,एकतत्व) मानते हैं। ये दोनों वीतराग-परमात्मा के तत्वज्ञान (समय पुरुष) के दो बडे-बड़े हाय हैं । लोक और अलोक इन दोनों के अवलम्बन फो यथार्थ तत्ववेत्ता गुर की उपासना गुरुगम) से जान कर (निश्पय करके मानिये, । इसका आश्रय लीजिए।
भाष्य
जिनेश्वर (समयपुरुष) के दो हाय : बौद्ध और मीमांसक इस गाथा मे श्रीमानन्दघनजी ने आत्मा को भिन्न और अमिनरूप में मानने वाले बौद्ध और मीमामक दर्शन को वीतरागपरमात्मा के तत्वज्ञानरूप व ल्पवृक्ष के दो बडे-बडे हाय माने हैं । जैसे मनृप्य के दोनो हाथ सारे शरीर पर फिरते हैं और शरीर के कार्यों के अलावा अन्य जो भी करने योग्य कार्य हैं, उन्हे भी करते हैं। हाथ पुरुषार्थी और क्रिया करते रहने से वलिष्ठ होते हैं, वैसे ही वीतराग परमात्मा के तत्वज्ञानरूपी पुरुष के दोनो कर (हाय) ल्पी दोनो नय (द्रव्यास्तिक और पर्यायास्तिक नय) समस्त लोकालोक के यथार्थ तत्वज्ञान को बनाते हैं। हाय जैसे मार्गदर्शन देते हैं, वैसे ही ये दोनो नय (कर) भी सारे जगत् को मार्गदर्शन देते हैं। इन्हे बडे हाथ इसलिए कहा कि ये केवल एक क्षेत्र या प्रदेश मे नही, सारे विश्व मे और लोक के बाहर अलोक मे भी मागदर्शन वप्रेरणा देते हैं। बौद्धदर्शन आत्मा को भेद रूप (पृथक् पृयक्) मानता है, यानी उसका कहना है कि आत्मा भिन्न-भिन्न है, खण्ड-खण्डरूप है एव क्षणिक है। आत्मा विज्ञान पन है, लेकिन वह प्रति व्यक्ति में भिन्न-भिन्न है तया प्रत्येक क्षण मे बदल ना रहता है। दुनिया की प्रत्येक नाशवान् वस्तु अलग-अलग है। इस क्षण जो घडा है, वही दूसरे क्षग नष्ट हो जाता है, फिर दूसरे ही क्षण वह उत्पन्न हो जाता है, फिर नष्ट होता है, यो उत्पत्ति और नाश की परम्परा चलती है, सामान्य व्यक्ति को ऐसा मालूम होता है कि 'एक ही घडा है, परन्तु कितने ही घडे उत्पन्न हुए और नष्ट हो गए, अत वे अत्पन्न
और नष्ट होने वाले घडे अनेक हैं, वे प्रत्येक पृथक्-पृथक् हैं । परन्तु द्रव्य को छोड कर पर्याय भिन्न नहीं है 'जलतरगवत् स्वर्णाकारवत्' यानी पानी और उसकी तरगो की तरह, अयवा सोना और उसके आकार की तरह पहले क्षग जो आत्मा था, वही दूसरे क्षण वदल जाता है, इस प्रकार बौद्धदर्शन भेदवादी पर्यायवादी है, एकान्तपर्यायास्तिक नय के आधार प. चलता है, वह अनित्यवादी है और जनदृष्टि से ऋजुमूत्रनयवादी है।