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अध्यात्म-दर्शन
की तरह अनेक रूप में दिखाई देता है । तात्पर्य यह है कि एक ही ब्रह्म सकल पदार्थो के रूप मे परिणमित व प्रतिभासित होता है । इस दृष्टि से वेदान्त (उत्तरमीमांसा) दर्शन अभेदवादी है, द्रव्यवादी है, द्रव्याथिक नय की एकान्त दृष्टि रखता है, परमसग्रहवादी और नित्यवादी जैनदर्शन के निश्चयनय (शुद्धसग्रहनय) की दृष्टि से 'एगे आया' आत्मा एक ही है, क्योकि आत्मा के असध्यप्रदेश सर्वप्राणियो मे समान हैं तथा सर्वप्राणियो के आत्मा का लक्षण उपयोग (ज्ञाताद्रण्टा) एक समान है। समस्त आत्माओ की सत्ता एक है, सव आत्माओ मे द्रव्य-गुण-पर्यायरूप धर्म एक ही है। निश्चयनय आत्मा के बन्ध को नही मानता । परन्तु आत्मा मुक्त भी नही होता, यह वात निश्चयदृष्टि से इस प्रकार घटित हो सकती है शुद्ध आत्मा न तो वन्धता है, न मुक्त होता है, क्योकि जो बधता ही नही , उसके मुक्त होने की भी जरूरत नहीं रहती, वस्तुत. आत्मा सर्वथा सर्वदा मुक्त ही है । निश्चयनयानुसार यह वात सत्य है । इसलिए इसे जिनवरतत्त्वज्ञानरूपी कलावृक्ष का एक हाय कहना उचित ही है। यद्यपि वेदान्त की पूर्वोक्त बाते अशसत्य है, अंशसत्य को सर्वसत्य नही समझना चाहिए।
भेद और अभेद प्रे लोक- अलोक का आलम्बन कैसे? जैनदर्शन की विश्व-व्यवस्था भेद और अभेद दोनो तत्त्वो पर व्यवस्थित है । जगत् मे कोई भी पदार्थ ऐसा नहीं है, जिसमें भेद और अभेद दोनो न हो। दीपक से ले कर आकाश तक तमाम पदार्थ भेद और अभेद से युक्त हैं । उदाहरणार्थ - नट एक होते हुए भी वह अलग-अलग वेश धारण करता है तब पृथक् -पृयक (भिन्न-भिन्न) वेश मे, भिन्न भिन्न नाम से पहचाना जाता है । इस प्रकार उसमे पृथक्त्व और एकत्व दोनो दिखाई देते हैं। पुस्तक एक होते हुए भी उसके पन्ने अलग-अलग होते हैं। पुस्तक यदि सर्वथा एक ही हो तो अलग अलग पन्ने क्यो पढ़े जाते ? और पन्ने अगर सर्वथा अलग-अलग होते तो एक पन्ने के विषय-सम्बन्ध दूसरे पन्ने के साथ न मिलता, पुस्तक भी एक नही कहलाती।
'एक एव हि भूतात्मा भूते-भूते व्यवस्थितः। एकधा बहुधा चैव दृश्यते जलचन्द्रवत् ॥'