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अध्याता-दर्शन नही लगाया जायगा, उनके प्रति उपेक्षाभाव रखा जाएगा, तो वे स्वयमेव उपेक्षित हो कर चले जाएं गा । अब दूसरा एक सवाल यह खडा होता है कि साज, वेदान्त आदि दर्शन जो अपनी-अपनी ओर से वजनदार युक्तियां तक
और हेतु दे कर आत्मतत्त्व के विषय में अपना-अपना मन्तव्य प्रस्तुत करते हैं, क्या राग-द्वे परहित हो कर ममभावपूर्वक उनकी बात को भी यथार्थ मान ली जाए ? इसके उत्तर में प्रभु रहते है - राग परहित होने का अर्थ यह नही है कि विवेक छोड़ दिया जाय और सबकी जीहजूरी की जाय, गगा गए गगादाम और यमुना गए यमुनादास' की तरह सव की हां मे हाँ मिलाई जाए। इसके लिए तो वे साफ कहते हैं-"जेणे विवेक धरी ए पख ग्रहियो, ते 'तत्वज्ञानी फहिए" अर्थात् जो अपने विवेक की आँखे खुली रख कर मेरे (परमात्मा के) बताए हुए इस विचार-परामर्श को ग्रहण करेगा और तदनुसार चलेगा, वही असल मे तत्त्वज्ञानी कहलाएगा) बाकी तो जो समता या वीतरागता की लबी-चौडी बातें करके प्रसिद्धि के चक्कर में पड़े हुए हैं, जिनका मकसद अपनी नामवरी करने के लिए दुनिया की आंखो मे धूल झोंकना है, वे लोग नकली या फसली तत्वज्ञानी हैं। उनसे बहुत ही सावधान रहना चाहिए।
रही बात उनके द्वारा प्रतिपादित मन्तव्यो को मानने की, सो हमने पहले ही कह दिया है कि जितने भी एकान्तवादी, मिथ्यानही या कोरी आत्मा की बातें बघारने वाले हैं, उनका पिंड छोडो, उनके चगुल मे मत फसो । उनके मत-पक्ष के घेरे में फंसने से कोई लाभ नहीं है, सिवाय वौद्धिक व्यायाम या वहमवाजी के कुछ भी पल्ले पड़ने वाला नहीं है । साथ ही प्रभु ने एक बात और स्पष्ट कर दी है कि जिसे आत्मतत्त्व को पाना है, उसे दुनियादारो या मत-पक्षवालो की वा ५ वाग्-जाल और चित्तभ्रम का कारण समझनी चाहिए। उनके शब्दजाल मे कतई नही फसना चाहिए।
केवल आत्मतत्त्व के ध्यान मे डूब जाओ इससे यह फलित होता है कि जो व्यक्ति आत्मतत्त्व के ध्यान मे-लीन हो जाता है, उसे फिर लम्बे चौडे शास्त्रज्ञान की, पैनी बुद्धि करके तर्क-वितर्क
१ ‘शब्दजालं महारण्यं चित्तभ्रमगकारणम्'-~-शकराचार्य