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अध्यात्म-दर्शन
इन दोनो दर्शनो को वीतराग परमात्मा [या उनके तत्त्वज्ञान] के कापवृक्ष के समान दो पर पहने मे कोई अतिशयोक्ति नहीं है।
सांत्य और योग वीतरागतत्वज्ञान के मूलाधार साट्यदर्शन और योगदर्शन दोनों को जिनवर-जिनतत्त्वज्ञान-कल्पवृक्ष के दो पर क्यों वताए हैं ? इनका मेल जैनतत्त्वनान के साथ कहां-कहाँ खाता है । इस पर जब तक विचार न कर लिया जाय, तब तक उपयुक्त वात गले नहीं उतरेगी।
वीतरागरूप-कल्पवृक्ष के मूल अयवा वीतरागतन्वनान [ममयपुरुष] के पैर के समान ये दोनो अग है। क्रमश हम इन दोनों पर विचार कर लें।
वीतराग-परमात्मा ने निश्चयरूप से कहा है-'आत्मा है और वह अनन्त है निश्चयदृष्टि से मात्मा स्वय कर्म का कर्ता नहीं है। अगर नात्मा को का-भोक्ता मानना हो तो वह स्वस्वभाव का कर्ता और भोक्ता माना जा सकता है। यद्यपि शुद्धस्वरूप सिद्धात्मा (परमात्मा) में अनन्तजान. अनन्त दर्शन, अनन्तवीर्य और अनन्तसुख हैं, परन्तु मोक्षदशा में मात्मा अकरणवीयं होने से वह इनका उपयोग नहीं करता, इस अपेक्षा ने उने अकर्ता माना है।
साव्यदर्शन भी आत्मा को मानता है, परन्तु उसे कमों मे असग (निर्लेप) एवं अकर्ता मानता है । साख्यदर्शन के अनुसार आत्मा कर्ता नहीं है, भोक्ता भी नहीं है, वह तो सिर्फ द्रप्टा है, साक्षीभाव से सब कुछ जानता-देखता है। कर्ता प्रकृति है, राग-द्वेष वगैरह सब प्रकृति के कार्य हैं । साव्यदर्शन मे मूल २५ तत्त्व माने गए हैं। उनमें से २४ तत्त्व [५ ज्ञानेन्द्रियां, ५ कर्मेन्द्रियां, ५ महाभूत ५ तन्मात्रा, मन, बुद्धि, चित्त, महकार, ये प्रकृतिजन्य हैं और पच्चीसा सबसे भिन्न, आत्मतत्त्व है । आत्मा नि सग, अकर्ता, साक्षीभूत एव चेतनायुक्त है । ज्ञान से ही क्लेश का नाश और ज्ञान से ही मोक्ष [दुखत्रयविनाश होता है।
जैनशास्त्रानुसार साख्यदर्शन के प्रणेता (सस्थापक) कपिल-मुनि माने जाते हैं । वर्तमान इतिहासकार आज से लगभग २७०० वर्ष पूर्व,