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अध्यात्म-दर्शन मिलाने वाला, अविवेकी नहीं होगा, वह सबको विविध नयो की दृष्टि मे अपना-अपना उचित स्थान मिले, सबको न्याय मिले, किसी एक के प्रति या अपने माने जाने वाले के ही प्रति पक्षपात न हो, यही समता का यथार्थ अर्य मानना है। इस दृष्टि से समता का अर्थ सवको एक सरीखा मानना और सबकी एक ही दृष्टि समझना, गलत है। ऐसा होना भी असम्भव है । यही कारण है कि तीर्थकरो ने १५ प्रकार से सिद्ध (मुक्त) होने का जो निर्देग किया है , उसमें किसी के प्रति किसी प्रकार का पक्षपात नही किया, अपितु यथायोग्य न्याय दिया है, न कि सबको राजी रखने की नीति अपनाई है। उमी दृष्टिकोण से श्रीआनन्दघनजी नमिजिनवर (वीतराग के चरण-उपासक की दृष्टि, व्यवहार, आचरण और विचार को यहां पूर्णतया स्पष्ट कर देते हैं कि वह छही दर्शनी का आराधक (आदरपूर्वक अपनाने वाला) होगा, सभी दर्शनो को यथायोग्य स्थान पर स्थापित (न्यस्त) करेगा, और यही दर्शनो मे निहित सत्य के कारण उन्हें जिनवर के अग मानेगा । वही नमिजिनवर का चरण-उपासक होगा। ___ अव रहा सवाल, दूसरो के द्वारा अपने दर्शन के सिवाय अन्य सबको झूठे मानने और एकान्त एकपक्षीय मत वाले दर्शन को जिनवर के अग कहने का। हो सकता है कि दूसरे दर्शनो वाले ईर्ष्यावश या अन्य राग-द्वे पादि विकारवश अनेकान्तदृष्टि से हमारी तरह सब दर्शनो को न माने, न समन्वय फरे और एकान्तमत की ही प्ररूपणा करे, परन्तु वीतराग के चरणो का उपासक ऐसा नहीं कर सकता । यहां तो स्पष्ट आराधना-सूत्र बताया गया है-'उवसमसारं सु सामण्ण' श्रमणसस्कृति का सार कषायो [रागद्वे पो] का उपशमन [शान्त, करना है। दूसरा कोई उसकी वात सुने या न सुने, माने या न माने, सत्यवाही दृष्टि वाला अपनी अनेकान्त और नयप्रधान दृष्टि से सवको उचित स्थान देगा, वह दूसरे दर्शनो की देखादेखी अपने मत को ही सच्चा और दूसरे सव मतो को झूठा कहने का पक्षपातपूर्ण, राग-द्वपयूक्त रवैया नही अपनाएगा। जैसे कल्पसूत्र के आज्ञाराधना सूत्र में बताया गया कि दो व्यक्तियो मे परस्पर विवाद, कलह या मनमुटाव खडा हो गया है, तो उनमे से जो माराधक होगा, वह सामने चला कर दूसरे से क्षमायाचना करके, उसका मन समाधान करने का प्रयत्न करेगा, यदि दूसरा व्यक्ति उसके द्वारा की गई क्षमायाचना को स्वीकार नही करता, बात सुनी-अनसुनी कर देता है, तो आराधक को इस बात का ख्याल नही करना चाहिए, उसे अपनी ओर से उपशमन कर लेना चाहिए।