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अध्यात्म-दर्शन
देश, वेप, जाति, कुन, धर्म-सम्प्रदाय या दर्शन के रहे हो, वे गृहस्थाश्रम में रहे हो, वे स्त्री हो, पुरुप हो, या चाहे नपुंसक, उन्होने अपने आप वोध प्राप्त किया हो, या वे किसी की प्रेरणा से प्रतिबुद्ध हुए हो, जैनदर्शन ने उन सत्य के पुजारियो को कभी पराये नहीं माने और न उन्हे प्रभु के भक्त, श्रावक, उपासक या साधु कहने से इन्कार किया है और न ही उनके मोक्ष (परमात्ममिलन), मुक्ति या कर्मबन्धन से छुटकारे की साधना पर कोई प्रतिवध लगाया है, न किसी प्रकार की अपने माने हुए तथाकथित नामो की ही पावदी लगाई है । यही कारण है कि जनदर्शन मे १५ प्रकार मे से किसी भी प्रकार से मुक्त (परमात्मा) होने को मुक्त माना है, जबकि दूसरे दर्शनो में अपने माने जाने वाले धर्नसम्प्रदाय, भगवान् या प्रवर्तक (मसीहा या पैगम्बर) के मानने वालो या अमुक जाति, कुल या वेप वालो को ही मुक्त, परमात्मभक्त, या साधक माना है, दूसरो को नही । इसलिए थीआनन्दघनजी ने परमात्मा के चरणउपासक की सर्व-प्रथम कसौटी यह बताई है कि परमात्मा-वीतराग के चरण उपासक की दृष्टि इतनी व्यापक, सत्यग्राही, उदार और सहिष्णु हो कि वह रही दर्शनो को वीतराग (परमसत्य) प्रभु के अग माने, कहे और उनका समायोजन या स्थापन इतने सुन्दर ढग से करे कि सबको यथायोग्य स्थान मिल जाय, सवको जिनवर के दर्शन मे समाविष्ट कर सके । कोई भी दर्शन उसके लिए पराया न रहे । और ऐसा तभी हो सकता है, जब मनुष्य अनेकान्त की केवल बातें न करे, अपितु अनेकान्त को जीवन मे आचरित करके बताए।
बहुधा ऐसा होता है कि जैन और वीतरागभक्त कहलाने वाले तथाकथित आचाय, धर्मोपदेशक, मुनिपु गव, श्रमणोपासक या जिनभक्त जनता के सामने तो समता और अनेकान्त की वही-बडी बाते करेंगे, किन्तु जहाँ आचरण का प्रश्न आएगा, वहाँ वे पीछे हट जाएंगे, वहाँ वे बगलें झाकने लगेंगे और कहेंगेअपना अपना है, पराया पराया है। जरा से विचारभेद के कारण दूसरे को मिथ्याष्टि, नास्तिक या न जाने क्या क्या घृणासूचक शब्दो से पुकारेंगे, वहां उनका ममतादर्शन या अनेकान्त-दशन छूमतर हो जाएगा। इतना ही नहीं, बल्कि तथाकथित सम्यग्दृष्टि जिनभक्त अदर ही अदर अपने भक्तो या अनुयायियो मे जरा-सी विचार-आचारभिन्नता को ले कर चलने वालो की निन्दा, झूठी आलोचना और व्यर्थ छीछालेदर मे घटो बिता देंगे, अपने समत्व को,