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बध्यात्म-दर्शन
से विचार करके परखो तो सही। ऊपर बताए हुए तीन प्रकार के पद तमत में से विशिष्टाद्वंत विष्णु-उपासक हैं, वे स्थावरजगम सभी वस्तुओ मे विष्णु को देखते हैं। उनके मत स जीवात्मा कभी परमात्मा नहीं होता । इसी प्रकार द्वैताद्वैत [निम्बार्क] मत मे नुख और दुन्य दोनों को एक माना जाता है। यह वात किमी तरह गले नहीं उतरती नही। इसीलिए श्रीमानन्दधनजो परमात्मा से वास्तविक आत्मतत्त्व को बताने की प्रार्थना करते हैं ।
यद्यपि द्रव्यत्त्व की दृष्टि में सामान्यधर्म को स्वीकार करने वाले मबह्नय को अपेक्षा से जड और चेतन जरूर एक हैं, परन्तु व्यवहारनय कीअपेक्षा से वे पृथक्-पृथक भी हैं, मगर एकान्तरूप से दोनो को एक मानने पर सांकर्यदोष आता है।
आत्मतत्त्व को एकान्त नित्य मानें तो अब श्रीआनन्दघनजी आत्मा को एकान्त कूटम्यनित्य मानने वाले अद्वैतवादी वेदान्त अथवा साल्यदर्शन की परीक्षा करते हैं । अतवादी वेदान्त की एकान्त मान्यता है कि आत्मा सदोदित एक समान रहता है, वह कूटस्थ (घन की तरह स्थिर) है, उसमे कही भी परिवर्तन नहीं होता। इस प्रकार आत्मदर्शन करने मे लीन हुए वेदान्ती अपनी मान्यता मे उपस्थित होने वाले दोपो को मतिहीन वन कर देख नही सकते। इस मान्यता मे दोष ये है-इस जीवन मे प्राणी को सुख-दु ख के कारण मीठे या कड़वे फल का अनुभव होता है। एकान्तरूप से स्वरूप मे लीम कूटस्थनित्य आत्मा तो कुछ भी करणी= त्रिया नहीं कर सकता, तथपि आत्मा तो अच्छे-बुरे परिणाम भोगता है, यह तो म प्रतिदिन देखते हैं। हम मृष्टि में बड़े-बड़े दानकर्ताओ को देखते हैं, तपजपादि अनुष्ठान करते भी देखते हैं। आत्मदर्शन मे लीन आत्मा तो भोक्ता नही हो सकता तथापि हम राजा और रक, धनाढ्य और दरिद्र का अन्तर देखते हैं। ये सब वाते एकान्त नित्य मात्मा मे घटित नही हो सकती। ___आत्मा को एकान्त नित्य मानने से सर्ववादीसम्मत और प्रत्यक्षादि से ज्ञात होने वाला कार्य-कारणभाव कथमपि किसी भी काल मे घटित नहीं हो सकता | क्योकि कार्य-कारणभाव में एक पदार्य कार्यरूप में होता है,जबकि
दूसरा पदार्थ कारणरूप होता है । अथवा एक ही पदार्थ की एक पर्याय . (अथवा) कारणरूप और दूसरी पर्याय कार्यरूप बनती है। जैसे लोहे नामक