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परमात्मा से आत्मतत्त्व की जिज्ञासा
अलग नहीं है। सभी जड और समस्त चेतन मिन कर एक ही आत्मा (ब्रह्म) इस जगत् मे है। तथा सभी चराचर आत्माओ का एक ही स्वभाव है, एव सारा जगत् ब्रह्ममय होने से जड भी चेतन मे मिल जाता है और चेतन भी जड मे मिल जाता है, तब दोनो एकमेक हो जाते हैं। इस अद्वैतमत के तीन प्रकार हैं[१] शुद्वाहत, [२] द्वैताद्वैत और [२] विशिष्टाद्वैत ।
आत्मतत्त्व को अद्वैतमत की दृष्टि से स्वीकार करने पर अनेक आपत्तियां आती हैं । यो मानने पर प्रत्यक्षप्रमाण से पृथक्-पृथक् प्रतीत होने वाले स्थावर और जगम, जड और चेतन दोनो प्रकार के पदार्थ एकसरीखे हो जायेंगे । ऐसा होने पर सकर' (एक दूसरे मे परस्पर मिश्रण] दोष [न्यायशास्त्र का दोष] आएगा। जैसे-जड को सुख-दु ख का अनुभव नही होता, चेतन को दोनो का अनुभव होता है । जड और चेतन के लक्षण और उनकी व्यवस्था में अन्तर है । जडचेतन-एकत्वमत को मानने पर ये लक्षण और व्यवस्था दोनो समाप्त हो जाएगी। क्योकि जह को भी चेतन की तरह सुख-दु ख मानने पड़ेंगे और चेतना को भी जड के तरह सुखदु खरहित मानना पडेगा। और स्थावरजीवो का परिणाम जगमजीवो को और जगमजीवो का परिणाम स्थावरजीवो को भोगना पडेगा, परन्तु वस्तुत ऐसा होता नहीं। जगत् के सभी प्राणियो को ऐसा अनुभव नहीं होता । अत यह सकरदोष भी आएगा।
और फिर सुख [साता] का मीठा और दुख [असाता] का कडवा अनुभव सर्वत्र सव जगह एक ब्रह्म मे ही मानने से अच्छे-बुरे अनुभवो का घोटाला हो जाएगा । दोनो प्रकार के अनुभव मिश्र हो जाएंगे। पशु और पक्षी, कीडा और रेंगने वाले सादि सवका लक्षण [साकर्य एक हो जाएगा। यह घोटाला भारी उलझन पैदा करेगा । इसलिए इसमे हेत्वाभास दोष तो स्पष्ट दिखाई देना चाहिए । इसलिए श्रीआनन्दघनजी उन अद्वैतवादियो से कहते हैं-'चित्त विचार जो परिखो' । अर्थात् अपने मत [विचारधारा] पर ठडे शान्त] चित्त
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१ सकरदोष वह है, जिसमे अलग-अलग पदार्थों के लक्षण किसी एक ही
लक्ष्य मे घटित हो जाय । अत लक्षणो का परस्पर एक दूसरे मे मिल जाना संकरदोष है।