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परमात्मा से आत्मतत्त्व की जिज्ञासा
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मे जिनेन्द्र की स्तुति करते हुए कहते हैं-'जो विवेकविकल लोग आत्मा को वन्धरहित, एक, नित्य (एकात, क्षणक्षयी, असद्रूप सर्वथा-एकान्तरूप से मानते हैं उन विवेकमूढ लोगों को समझ मे वह भलीभांति नहीं आया। अत उसे समझने के लिए वही एकमात्र जिनेन्द्र परमात्मा मेरे लिए शरणरूप हो ।" इस स्तुतिपाठ मे विविधरूप से आत्मा को मानने वाले ५ दार्शनिको की मान्यता का जिक्र किया है, यही बात श्रीआनन्दघनजी ने क्रमश दूसरी, तीसरी, चौयी, पांचवी और छठी गाथा मे प्रस्तुत की है ।
-: मर्वप्रथम आत्मा के सम्बन्ध मे साख्यादि दर्शनो की मान्यता प्रस्तुत करते हुए वे कहते हैं- “कोई अवध आतमतत माने।' अर्थात् सांख्यदर्शन आदि कुछ दर्शन आत्मा को निर्लेप, नि सग एव निर्वन्ध मानते है । वे कहते हैं, 'असगो ह्यय पुरुष' आत्मा कर्मों आदि से बिलकुल निर्लेप, है, इसलिए 'विगुणो न बध्यते, न मच्यते, इस वेदवाक्य के अनुसार आत्मा. सत्त्व, रज, तम इन तीन गुणो से रहित है, निर्लेप है, वह कुछ करता धरता नही है, सब कर्मों से बिलकुल अलग-थलग असग रहता है । जो असग रहता है, उसके वध भी नहीं होता । प्रकृति ही त्रिगुणात्मिका है, वही सब कार्य करती-धरती है, कर्म का-बन्ध उसी को होता है । इस मान्यता मे दोष बताते हुए योगीश्री कहते हैं-आत्मा को निलेप निर्बन्ध मानने वाले अपने सम्प्रदाय मे प्रचलित विविध क्रियाएं (दान देना, काशी मे जा कर गगास्नान करना आदि) करते हुए प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं । अथवा प्रत्यक्ष अनुभव से दिखाई देता है कि वे मानसिक शुभाशुभ विचार, वाचिक सत्यास यवाणी का व्यापार, कायिक हलचल आदि स्पन्दमान क्रियाएँ करते हैं। सवाल होता है कि जब आत्मा अवन्ध है, तो ये क्रियाएँ कौन और किसके लिए करता है ? जो क्रिया की जाती है, उसके करने वाले को फन भी अवश्य मिलता है। उनके शास्त्र का वचन
'१ 'अबन्धस्तथैक. स्यितो वा क्षयी वाs- ।। ।
प्यसद् वा मतो यर्जडेस्सर्वथाऽऽत्मा ।।। - न तेषा-विमूढात्मनां गोचरो यः। .
- स.एक परात्मा गतिमें जिनेन्द्रः ॥२६॥
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