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परमात्मा से आत्मतत्व की जिज्ञासा
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क्रियाओ अयवा तत्वज्ञानप्राप्ति या शास्त्रो के अध्ययन आदि के मूल मे
आत्मतत्व का ज्ञान होना अनिवार्य है । आत्मा का स्वरूप भलीभांति जाने विना किसी भी धर्मतत्व का आचरण, क्रिया, शास्त्राध्ययन या व्रतनियमपलन का कोई अर्थ नही रहता । अगर आत्मा को जाने बिना ही किमी क्रिया को मात्र देखादेबी या गतानुगतिकता अयवा लकीर के फकीर बन कर परम्परागतरूप से की जाएगी, अयवा अन्धविश्वास या शुभभावना से की जाएगी, तो वह केवल स्वर्गादि शुभफल दे कर समाप्त हो जाएगी, परन्तु वह जन्म-मरण के बंधन काट कर मोक्षफल-दायिनी नही हो सकेगी। इसीलिए आत्मस्वरूप जानने के बाद ही कोई भी साधना या प्रवृत्ति अयवा धर्मक्रिया आदि सार्थक प्रतिफल दे सकती है, और उमी का फल मोक्ष है । इसीलिए भगवान् महावीर ने फरमाया था-'जो आत्मवादी है, वही लोकवादी (लोकपरलोक को मानने वाला) है, जो लोकवादी है, वही कर्मवादी (कर्मों के कर्तृत्व भोक्तृत्व-वन्ध और मोक्ष के सम्बन्ध मे विश्वस्त) है, तथा जो कर्मवादी होता है, वही क्रियावादी (कर्म-बन्धन से वचने और कर्मों से मुक्त होने के लिए आत्मस्वरुप-नक्षी पुरुषार्थ करने वाला) १ होता है । इस दृष्टिकोण से योगी-श्री द्वारा सर्वप्रथम आत्मतत्व की जिनामा प्रस्तुत करना न्यायोचित है।
आत्मतत्व की निनासा का दूसरा कारण, जो श्रीआनन्दघनजी के स्वय प्रस्तुत किया है, वह यह है कि आत्मतत्व का जानना सर्वप्रथम इमलिए जरूरी है कि जिनशासन का यह नियम है कि मोक्षप्राप्ति के लिए आत्मतत्व का सर्वप्रथम सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन अनिवार्य है। आत्मतत्व की सम्यक जानकारी और सच्ची तत्वश्रद्धा के विना निर्मल (शुद्ध) वित्तममाधि (मन - स्वस्थता) नही होती । मन स्वस्थता के विना किसी भी प्रवत्ति, क्रिया या ज्ञानप्राप्ति आदि को साधक बिना मन से, गूने मन मे विना भावो का तार जोडे ही करेगा, उससे उस क्रिया या प्रवृत्ति में सजीवता, स्फूर्ति या चेतना नहीं आएगी। इसीलिए श्रीआनन्दघनजी कहते हैं - आतमतत्त्व जाण्या विण
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-- १ "जे आयावाई से लोयावाई, जे लोयावाई से कम्मावाई, जे कम्मावाई से 'किरियावाई।
-आचारागसूत्र प्रथम श्रु०