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अध्यात्म-दर्शन
निर्मल चित्त-समाधि न वि तहियो' । निष्कर्ष यह है कि पवित्र चित्त शान्ति के लिए और पवित्रचित्तसमाधि मे शुद्धात्मा (परमात्मा) की प्राप्ति के लिए सर्वप्रथम आत्मतत्व का ज्ञान होना जरूरी है।
परमात्मा से आत्मतत्त्व को जिज्ञासा क्यों? अब सवाल यह होता है, कि ठीक है, आत्मतत्त्न का ज्ञान होना सर्वप्रथम जरूरी है, पर किमी धर्मगुह, दार्गनिक या मतपयवादी से ही आत्मतत्व का ज्ञान हो सकता था, परमात्मा से ही आत्मतत्व का ज्ञान पाने की इच्छा क्यो प्रगट की ? इसका समाधान यह है कि धर्मगुरु, दार्शनिक या मतपंथवादी वीतराग या मर्वज्ञ नही हए, तब तक वे छदमस्थ या अल्पज हो कह जा सकते हैं, भने ही वे पद, प्रतिष्ठा और वैभव में कितने ही मह न हो। इसलिए उनके कथन मे, कही जरा-सा भी पथराग, परम्पराराग, गुरुराग आदि आ सकता है, भले ही वह प्रशस्तराग ही क्यो न हो ! इसलिए बदमस्थ द्वारा कथित आत्मतत्त्वज्ञान मे कही स्वत्त्वमोह, परम्परामोह मादि के कारण यथार्थ वस्तुस्वरूप के यथार्थ कथन मे कही दोप आ सकता है। इसलिए पू. स्तुति मे कयित १८ दोपरहित, वीतराग, अपक्षपाती, यथार्थ वक्ता, नाप्नपर्व के समक्ष ही श्री आनन्दघनजी ने अपनी आत्मतत्त्व की जिज्ञासा प्रस्तुत की है, ताकि उन्हें यथातथ्यरूप से आत्मतत्व का सांगोपांग समाधान मिन सके ।
परमात्मा के समक्ष शुद्ध आत्मतत्व की जिज्ञासा इसलिए भी प्रस्तुत की है कि वीतराग परमात्मा इस मार्ग के ययार्थ अनुभवी हैं । मच्चा मागदर्शक वही हो सकता है । जिसने मार्ग को स्वय ता किया हो । निसने मार्ग का स्वर अनु. भव नहीं किता, वह मार्गज्ञ न होने पर भी विविध धर्मग्रन्यों या शास्त्रो के अध्ययन पर ने उम माग के सम्बन्ध मे जानकारी भी दे देगा, लेक्नि । उसकी वह जानकारी स्वत अनुभूत नही होगी, परतः ग्रन्यो या शास्त्रो से) अनुभूत होगी । वीतराग परमात्मा तो आत्मा के साथ लगे हुए रागद्वेषादि विकारो से जूझ कर एक दिन आत्मा के परमशुद्धस्वरूप (परमात्मतत्त्व को 'पा चुके है, इसलिए आत्मा के शुद्धतत्त्व का उनका ज्ञान उधार लिया हुआ नहीं है, स्वत अनुभूत है, स्वयसाक्षात्कृत है । यही कारण है कि श्रीआनन्दघनजी वीतराग परमात्मा से सीधा ही प्रश्न पूछते हैं--प्रमो ! मापने किस मात्मतत्त्व को यथार्थ जाना है ? अथवा कौन-सा आत्मतत्त्व आपकी दृष्टि मे यथार्थ