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दोपरहित परमात्मा की सेवको के प्रति उपेक्षा
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मन विसरामी' । पूर्वोक्त अठारहदोषो से रहित के रूप मे वीतरागप्रभु या भगवान् कहलाने वाले की भलीभांति परीक्षा करके हृदय को विश्राम दे सकने वाले प्रभु का स्वीकार करें और तब गुणगान करें। जमे जौहरी रत्न की परीक्षा करके ही उमे अपनाना है, सर्राफ सोने की अच्छी तरह परीक्षा करने के बाद खरा उतरने पर अपनाता है इसी तरह भगवान् या प्रभु कहलाने वाले महानुभ वो को १८ दोपरहिनता की कमोटी पर कसना चाहिए। हमारे वाप-दादे या पूर्वज उन्हे मानते-पूजते आए हैं, बहुजन इन्हे मानता है, इसलिए हम भी इन्हे पूजते हैं, यह नो गतानुगतिकता है, अन्धविश्वास है, इससे आत्मा का बहुत बडा अहित होता है । इमलिए परीक्षा करके, अपनी परीक्षा मे जो १८ दोषरहित जचें, उनकी ही पूजा करनी, उनके ही गुणगान करने चाहिए। __परीपूर्वक प्रभु का स्वीकार करने और तदनुरूप उनके गुणगान करने से दीनबन्धु भगवान की कृपादृष्टि हो जाय तो वेडा पार हो जाय, समारमागर को पार करके मुक्ति के परमानन्दघाम मे वह उनकी कृपा से जा विराजता है।
मल्लिनाथ प्रभु के स्वरूा (की तरह तमाम वीनरागी पुरुषो का स्वरूप) आगम मे १८ दोपो से रहित और अनन्त-चतुष्टयसहित बताया है । इस प्रकार का स्वरूपकथन नरेन्द्र, देवेन्द्र और मुनियो की परिषद् मे निश्चित किया हुआ है। फिर भी देवागम-स्तोत्र में कथित परीक्षा-प्रधान तरीके को अपना कर तथाकथिन भगवान की परीक्षा से परख कर प्रभुगुणो के प्रति अनुरागपूर्वक का गुणानुवाद करने से मन पर वे सस्कार दृढरूप से जम जाते हैं, इस प्रकार से गुणगान के बाद उन दीनबन्धु की अहैतुकी कृपादृष्टि हो जाने पर अवश्य ही माक्ष प्राप्त हो जाता है ।
इसका रहस्य यही है कि प्रभु की कृपादृष्टि यानी काल की परिपक्वता ऐमा भव्य एव सम्यग्दृष्टि जीव समय आते ही आवश्य मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। जनदर्शन के पचकारण-समवायी सिद्धान्त की दृष्टि से काल की परिपक्वता बहुत महत्वपूर्ण है । प्रभु हाथ से किसी को कुछ देते लेते नही, न किसी पर कृपादृष्टि डालते हैं, क्योकि वे निरजन-निराकार हैं । स्वय के पुरुषार्थ से ही . मोक्षपद की प्राप्ति करनी चाहिए।