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अध्यात्म-दर्शन
भय, १० जुगुप्सा, ११ राग, १२ हप, १३ अविरति १४ काम्यकदशा, १५ दानान्तराय, १६ लाभान्तराय, १७ भोगोपभोगान्तराय और १८ वीर्यान्तराय । प्रभु की काया (अथवा अमध्यप्रदेशी आत्मा) इन १८ दोपो मे सर्वथा रहित है । आत्मा को दूषित बनाने वाले इन बहिरात्मभावो को छोड़ कर प्रत्याख्यान न करने रूप में अविरति (मिथ्यात्म का मयार्थ कथन करने वाले होने से आपके गुणो के कारमा ही त्यागी, वैरागी व तपस्वीवृन्द ने आपका गुणगान किया है। श्रीआनन्दघनजी भी अन्तिम गाया मे इसी दृष्टि मे प्रभु का गुणगान करते हुए इस स्तुति का उपसहार करते हैं
इणविध परखी मन विसरामी, जिनवरगुरण जे गावे । दीनबन्धुनी मेहर नजर थी, 'आनन्दधनपद' पावे, हो । म० ११॥
अर्थ इस प्रकार अष्टादशदोषरहित एव अनन्तचतुष्टययुक्त श्रीमल्लिनायमन को भलीमांति देख परख कर उन अन्त करण के विश्राम रूप श्रीजिनवर के ज्ञानादिगुणो का जो पमझ गुणगान करता है, आठ प्रकार के दुःखो से दीन बने हुए जीवो को भाव से आत्मगुणो से समृद्ध करने मे बन्धुसमान श्रीतीपंकरदेव को परमकृपादृष्टि से वह आनन्दघनपद (मोक्षपद) प्राप्त करता है।
भाष्य
प्रभु का गुणगान और उससे लाभ यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि जो जिस पर श्रद्धा रखता है, वह वसा ही हो जाता है, उसके मन पर आने आराध्य आदर्श के गुणो की छार बार-बार गुणगान से अकित हो जाती है। मन ऐमा टेपरिकार्डर है, जिस पर बार-बार उच्चारण एव श्रद्धा के स्पन्दनो की छाप अकित हो जाती है। इसी दृष्टि से श्रीआनन्दधन जी कहते हैं-'जिनवरगुण जे गावे .. . 'आनन्दघन' पद पावे।'
" परन्तु प्रभु या भगवान् के नाम पर दुनिया में बहुत-से अन्धविश्वास पनप रहे हैं। बहुत से लोग स्वय जीते-जी भगवान् नीर्थ कर या पैगम्बर के नाम से पूजा-प्रतिष्ठा पा रहे हैं । इमीलिए आनन्दघनजी परीक्षाप्रधानी बन कर बाह्य चमत्कारों या आडम्बरो, से प्रभावित न हो कर कहते हैं-'इणविध परखी