________________
दोषरहित परमात्मा की सेवको के प्रति उपेक्षा
४२१
वीर्यान्तराय कर्म के उदय से लोग इधर-उधर मटरगश्ती करते फिरेंगे, पर धर्मकार्य, स्वाध्याय, ध्यान आदि करने में अपनी शक्ति के न होने का बहाना वनाएँगे । तपस्या करने में असमर्थता बताएंगे, किन्तु यो किसी मतलब के लिए भूखे-प्यासे रह लेंगे। धर्म श्रवण के लिए अवकाश नही मिलेगा, किन्तु गप्पें मारने मे घटो बिता देंगे यो मन को कमजोर बना लेते हैं। इस सबसे वीर्यान्तराय कर्म का बन्ध होता है । परन्तु प्रभु ने पूरी शक्ति अजमाकर इस अन्तराय का क्षय किया है। सासारिक जीवो को पोद्गलिक वस्तु न मिले तो भोगान्ताराम समझना चाहिए । यही बात उपभोगान्तराय के सम्बन्ध मे है । दोनो को एक दोष न कर १८ वां दोप भगवान् के द्वारा त्यक्त बताया है। ये दोनो अन्तरायकर्म इन वस्तुमो के देने वाले की “मजाक उड़ाने से, स्वय न देने तथा इसरो को भी न देने की सलाह देने से, देने वाले की निन्दा करने मे बधते हैं । प्रभो । आपने तो आत्मिक और पौद्गलिक दोनो वस्तुओ मे अन्तराय न पडे, इस रूप मे भोग-उपभोगान्तराय कर्मरूप दोष को जीत लिया। मुझे आपके ही आदर्श का अनुसरण करता है। आपने दुनिया को अपने उदाहरण द्वारा सही रास्ता बना दिया है ।
ए अढारदूषरणजित तनु, मुनिजनवृन्दे गाया अविरति-रूपक-दोष-निवारण निर्दूषण मन भाया हो ॥१०॥
अर्थ इन उपर्युक्त १८ दोषों से रहित आपकी असख्यप्रदेशी आव्मा या काया का पच-महाव्रतधारी गणधराविमुनि वृन्द ने वर्णन किया है। अविरति वगैरह दोषो से आच्छादित आत्मा का रूपक दे कर दयास्वरूप बताफर बोषों का निवारण कराने वाले (आप ही हैं, तथा आप स्वय) सब दोषों से रहित हैं। मेरे मन को आप अच्छे लगे हैं।
भाष्य
अठारह दोष से रहित भगवद्रूप जव छदमस्थावस्या छोड कर, वीतराग बनते हैं, तब वे स्वतः ही निम्नलिखित १८ दोष से रहित हो जाते है-१ आशा-तृणा, २-अज्ञान, ३ निद्रा या निन्दा), ४ स्वप्नदशा, ५ मिथ्यात्व, हास्य, ७ रति, अरति, ८ शोक ६