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दोपरहित परमात्मा की सेवको के प्रति उपेक्षा
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निष्काम होने के कारण आप मे अनन्तज्ञान-दर्शन-सुख वीर्यरूप अनन्तचतुष्टयपद पनपा, प्रगट हुआ।
भाष्य
काम्यकरसदोष का त्याग क्यो और कैसे ? वीतरागप्रभो । आपने वेदोदयजनित चौदहवें दूषण समस्त काम अथवा काम्यकरस का त्याग कर दिया, परन्तु सवाल यह होता है कि वेद क्या है ? काम क्या है ? उससे आत्मा की क्या हानि होती है ? इस बात को समझ लेने पर काम पर विजय प्राप्त करना आसान होता है। काम का एक मदनकाम के रूप में आविर्भत होना वेद है । कामवासना जव उदित या उत्तेजित होती है तो वडो-वडो के काबू मे नही आती, उस समय मन मे कामभोगो की प्रवल इच्छाओ का वेदन = अनुभव होता है, कामोत्तेजना का मानसिक वेदन ही वेद है, चाहे वह क्रियान्वित हो, चाह न हो। और काम का दायरा तो इससे भी बढकर व्यापक है । जैसे इच्छाए आकाश के समान अनन्त हैं वैसे ही इच्छा काम भी अनन्त हैं। उन सब पर विजय पाना बडी टेढी खीर है। पाँचो इन्द्रियो के विपयो से जनित विकार भी इच्छाकाम के अन्तर्गत है। कोई सुन्दर एव मनोज्ञ वस्तु उपलब्ध न हो, उसकी इच्छा को दवा लेना, फिर भी आसान है, किन्तु वस्तु उपलब्ध हो सकती हो, फिर भी उसकी इच्छा को दवाना ही नही, उत्पन्न ही न होने देना, बहुत ही कठिन काम है। परन्तु वीतराग परमात्मा ने पूर्वोक्त दोनो ही प्रकार के कामो के स्वाद का ही जडमूल से त्याग कर दिया, कामो को पूर्ण करना तो दूर रहा, उनका मन मे परिणाम (भाव) ही नहीं पैदा होने दिया। इसीलिए श्रीनन्दघनजी ने कहा"वेदोदय कामा परिणामा, काम्यकरस सह त्यागी रे।"
वास्तव मे वेद मोट्नीर कर्म के अग हैं नोकपायो मे से तीन हैं। इससे पहले हास्यादि छह दोपो के त्याग का वर्णन किया था। एक कामशब्द मे ही इन तीनों वेदो का समावेश हो जाता है। तीन प्रकार के वेद ये हैं-स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपु सकवेद । मोहनीय कर्म (वेद) के उदय से जब किसी पुरुष को स्त्री के साथ भोग भोगने की इच्छा पैदा हो, उसे पुरपवेद, स्त्री को पुरुष के साथ रतिसहवास की इच्छा हो, तब स्त्रीवेद एव पुरुष और स्त्री दोनो के साथ