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दोपरहित परमात्मा की सेवको के प्रति उपेक्षा
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पर सकल्पो के वशीभूत होकर दुख पाता रहता है। यही कारण है कि वीतरागप्रभु के (मल्लिनाथ) ने दोनो प्रकार कामो और उनके परिणाम के रसास्वाद को बिलकुल तिलांजलि दे दी और निष्कामी बन गए। . कोई यह प्रश्न उठा सकता है जब भगवान् कामरस से विलकुल खाली हो गए तो सूखे, मनहूस और नीरस बन गए होगे, किन्तु यह वात नही है । वे वीतराग हो जाने पर सर्वथा उदासीन या उपेक्षाग्रस्त नहीं होते। उन्होंने ससारी जीवो को अज्ञानवश दु.ख मे पडे देख कर तीर्थस्थापना की, सधन्यवस्था की, साधु-साध्वियो के विकास के लिए उनके द्वारा पुरुषार्थ हुआ, दया और करुणा से प्रेरित हो कर ही उन्होने उपदेश दिया । इसलिए वे नीरस नही, अपितु करुणारस से परिपूर्ण समुद्र हो गए। उन्होंने अपने अनुभव भव्यजीवो को दिये । स्वय अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य (शक्ति) इन चारो पदरूप मोक्षपद के अधिकारी बने । प्रभो । सचमुच,- आप जब इतने अनन्तचतुष्कवान बने हैं तो अपने इम सेवक को मत भूलिए । ____ अपने आध्यात्मिक विकास के मार्ग मे जो भी विघ्न हैं, उन्हे प्रभु कैसे दूर करते हैं, यह अगली गाथा मे देखिए
दान-विधन वारी सह जन ने, अभयदान-पददाता । लाभ-विघन, जग-विधन-निवारक, परमलाभरस-माता, हो।
म०॥८॥ वीर्यविधन पंडितवीर्य हरणी, पूरणपदवी' योगी। . भोगोप मोग दोय विघन निवारी, पूरणभोग सुभोगी हो ॥
___ म॥६॥ ।
अर्थ दान देने मे विन्न (दानान्तराय) का निवारण करके प्रमो ! आप सबको (दानों मे सर्वश्रेष्ठ) अभयदान (भयनिवारणरूप दान) के पद (अधिकार) अथवा निर्भयपद (स्थान)=मोक्ष के देने वाले वने । लाभ (पदार्थ मिलने) मे -जो अन्तराय (विघ्न ) था, उसके तथा जगत् के जीवो के अन्तराय (सारी दुनिया के लाभ मे जो अन्तराय आए, उसे रोकने वाले हो कर स्वय परमलाम (सर्वोच्च लाभ) के पद-मोक्षप्राप्तिरूपी परमपद मे मस्त (लीन) बने । और