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अध्यात्म-दर्शन
फिर वीर्यान्तराय (आत्मशक्ति की स्फुग्णा-प्रकटीकरण को रोकने वाले विघ्न) को भी पण्डितवीर्य (आत्मज्ञान की शक्ति) से नाश फरके पूर्ण पदवी (मोक्षपद) के साथ जुड गए। यानी मोक्षपदयोगी बन गए । इसी प्रकार भोगान्तराय एवं उपमोगान्तराय इन दोनों अन्तरायकों को निवारण (रोफ) कर पूर्णरूप से आत्मसुख के भोग और उपलक्षण से उपभोग के भोगी (भोगने वाले) बन गए।
प्रभु पाच प्रकार के अन्तरायदोष के त्यागी वते वीतराग परमात्मा के लिए जिन दोपो से रहित होना अनिवार्य है, उनमें से पूर्वगाथा तक १४ दोप से रहित होने तक की बात कही गई है । अव इन दो गाथाओ में ४ अन्तरायजनित दोपो में प्रभु के रहित होने की बात बताई गई है। वे चार दोप इस प्रकार हैं-दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, [उपलक्षण से उपभोगान्तराय भी] और वीर्यान्तराय ।
अन्तरायकर्म भी मूल मे घातीकर्म का अग है । उसका लक्षण है-आत्मा द्वारा की जानी वाली दान, लाभ, भोगोपभोग एव वीर्य की उपलब्धि मे अन्तराय (विघ्न) डालना । अभयदान तथा अन्य जो भी आत्मा से सम्बन्धित सपलब्धिया हैं, आत्मगुण हैं, उनमे रुकावट डालना, उनके विकास को रोकना है। ये अन्तरायम पाच प्रकार के हैं, जो सिवाय वीतराग के प्रत्येक ससारी आत्मा के साथ लगे हुए है। दान देने वाला मौजूद है, फिर भी आदाता को दान नहीं दिया जाना, अथवा दान लेने वाला सामने खडा है, दाता भी दान देना चाहता है, लेकिन लेने वाला इस दानान्तरायकर्म के फलस्वरूप दान ले नही सकता, ये दोनो प्रकार दानान्तराय के हैं। वैसे तो दान ५ प्रकार का है-[१] अभयदान, [२] सुपायान, [३] अनुकम्पादान, [४] कीर्तिदान, और [५] उचितदान । इनमे अभयदान सर्वश्रेष्ठ है, सुपात्रदान भी उत्कृष्ट है, अनुकम्पादान भी किसी हद तक उचित है, किन्तु कीर्तिदान [कीति = प्रतिष्ठा के वदले दान देना] और उचितदान [अपने परिवारसमाज आदि मे योग्य व्यक्ति को पुरस्कार आदि देना] ये दोनो दान आत्मा से सम्बन्धित दान की कोटि मे नहीं हैं। इन पांचो प्रकार के दानों में से बहुत