________________
दोपरहित परमात्मा की सेवको के प्रति उपेक्षा
४१३
राग, दोष, अविर तिनी परिणति, ए चरणमोहना योधा। . वीतराग-परिणति परिणमतां, उठी नाठा बोधा, हो ।मल्लि० ॥६॥
अर्थ चारित्रमोहनीय के सबसे बडे योद्धा (दोष) राग, द्वेष और अविरति की परिणति ऊधम मचा रहे थे, लेकिन आपके (आपकी आत्मा के) वीतराग-परिणति मे परिगत होते ही ज्ञानी का दम्भ करने वाले ये बोधक अथवा बोधा या जाग कर, झटपट खडे हो कर भाग गए।
भाष्य
राग, द्वेष और. अविरति का त्याग आत्मा के सबसे बडे घातक दुश्मन राग, द्वेप और अविरति हैं । ये १२ वें, १३ वें, और १४ वें दोष हैं, वीतराग के लिए। राग मनोज्ञ वस्तु पर प्रीति करने से और द्वेष अमनोज्ञ वस्तु के प्रति तिरस्कार करने से होता है । राग और द्वेष ही वास्तव में कर्मवीज हैं, जो मुक्तिपथ पर आगे बढने से प्रत्येक साधक को रोकते है । ये ऐसे मीठं और कातिल दुश्मन हैं कि इनका पता बडे बडे उच्च कहलाने वाले साधको को नहीं चलता । राग-द्वेष के नशे मे प्राणी मन और इन्द्रियो के अनुकून सयोगो मे इतना मशगूल हो जाता हैं कि बाजदफा तो वह अपना सर्वस्व होमने को तैयार हो जाता है, अपमान सह लेता है, भूख, प्यास और नीद तक को हराम कर बैठता है । इस घातक विषो से साधक की आत्मा अपने स्वभाव से मर जाती है, वह पनप नहीं पाती। बारवार जन्म-मरण के चक्कर मे डाल देते हैं, ये ही हमलावर | मोहनीयकर्म के ये बडे जवर्दस्त लडाकू योद्धा हैं । तीसरा है-अविरति नामक दोष । जब साधक के जीवन और अन्तर्मन मे अविरति पैदा हो जाती है तो वह आत्मा को विरूप बनाने वाले भावो का त्याग नहीं कर पाता, हिंसादि पांचो आश्रवो को वह आत्मघातक समझते हुए भी छोड नहीं पाता, हिंसादि को छोडने का विचार करते ही कभी तो अभिमान बीच मे आ कर रोक देता है, कभी अपनी गलत आदत, दुर्व्यसन, कुटेव या कुप्रकृति उसमे रोडे अटकाती है, कभी कभी क्रोध, कपट और लोभ आ कर विरति का हाथ पकड लेते हैं और उसे पीछे धकेल देते हैं । मोहराजा का आदेश होते ही ये तीनो एकदम आत्मा की स्वभाव