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दोषरहित परमात्मा की सेवको के प्रति उपेक्षा
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- " सम्बन्ध जोडते हैं एव दुःख तया व्यामोह उत्पन्न करने वाले परस्वभावी सम्बन्धियो से सदा के लिए नाता तोड़ देते हैं-सम्बन्धविच्छेद कर लेते है। आत्मा की आत्मीय सम्यग्दृष्टि है। सम्यग्दृष्टि का परिवार है-~-शम, सवेग, निर्वेद, अनुकम्मा, आस्तिक्य और भेदविज्ञान, विवेक आदि । अथवा सम्यक्त्व के ६७ बोलो का समावेश भी परिवार में शुमार है।
भगवान् मल्लिनाथ जब वीतराग हो कर स्वरूप मे स्थिर हुए, क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त किया, तब क्षायिक सम्यक्त्व और उसके समस्त परिवार के साय उन्होने ऐमा गाढ सम्बन्ध जोडा कि फिर वह कभी टूट न सके । सादि-अनन्त भग की दृष्टि से उन्होंने जव, अटूट सम्बन्ध जोड लिया तो मिथ्याबुद्धि (मिथ्यादृष्टि-मिथ्यात्व) ने आपत्ति उठाई, और अपने हक का दावा करने. लगी। किन्तु जब तक, क्षायिक सम्यक्त्व नही था, तब तक तो वह चुपकेचुपके घुस जाती और अपनी मोह माया को फैला कर आत्मा, को चक्कर मे डाल देती थी, लेकिन जब भगवान ने क्षायिक सम्यक्त्व पा-लिया तो उसकी पोलपट्टी का पता लगा, आत्मा के अहित करने वाले विविध अपराधो का भी पता चला ! अन वीतराग परमात्मा ने कुदृष्टि (मिथ्यामति) के कारण वारवार होने वाले आत्मगुण के अवरोधो को दूर करने हेतु उसे अपराधिनी सिद्ध करके उसमे सदा के लिए - सम्वन्ध-विच्छेद कर डाला और उसे अन्तरात्मारूपी घर से बाहर निकाल दी। मतलब यह है कि क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त होते ही भगवान् ने मिथ्यादृष्टि का आत्यन्तिक क्षय कर डाला। बाद मे उसकी कोई परवाह नही की। इससे प्रभु के स्वभाव का पता लग गया कि वे गुणो का आदर और अवगुणो का अनादर करते हैं।
मिथ्यात्व के द्वारा होने वाले अपराध मिथ्यादर्शन (दृष्टि) आत्मा का विविध प्रकार से अहित करता है । शास्त्रो मे मिथ्यात्व के अनेक भेद बताए गए हैं-धर्म को अधर्म और अधर्म कोधर्म मानना, साधु को असाधु और असाधु को साधु मानना, मोक्षमार्ग को ससार का मार्ग और ससार के मार्ग को मोक्षमार्ग समझना, आठ कर्मो से मुक्त को अमुक्त और अमुक्त को मुक्त समझना, जीव को अजीव और अजीव को जीव मानना, ये सव मिथ्यात्य हैं, जो आत्मा को वस्तु का असली स्वरूप समझने-मानने