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दोषरहित परमात्मा की सेवको के प्रति उपेक्षा
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को मधुर उपालम्म पहले लाखो करोडो वर्ष पुराने राग-द्वेपादि तथाकथित सेवको को ले कर, और दूसरे अर्थ की दृष्टि से स्वय को ले कर दिया गया उसका वे स्वयमेव समाधान पा लेते हैं ।
वास्तव में तीर्थकर मल्लिनाथ सम्यग्दृष्टि बनने से पहले राग-द्वषादि को अपने आत्मीर मानते थे, बाद में ममझ आने पर एक मल्ल (पहलवान) की तरह मारम' का अहित करने वाले, की-कराई साधना को चौपट करने और चारगतियो मे भटकाने वाले उन रागद्वेषादि को शत्र-सा कार्य करने वाले समझ कर उनमे भिड पडे और उन्हे बिलकुल पछाड दिया, जडमूल से उखाड़ कर फेंक दिया। उन पुराने तथाकथित सेवको के उन अपराधो-दोषो को देख कर वीतराग भगवान उनकी सेवको मे गणना कैसे कर सकते थे? उन्होंने अवगणना की और अपने तीर्थ के अनुयायियो को भी उनसे सावधान रहने का निर्देश किया। उनका यह कार्य शोभास्पद ही है। ____ इगोलिए उन पुराने तथाकथित १८ सेवको (वैभाविक गुणो और आत्मा के महित करने वाले दोपों) गो चुन-चुन कर वीतराग प्रभु ने फेंक दिये, उनके पैर उखाड दिये, अपने पास तक नही फटकने दिये । ____ भगवान् ने उन अठारह दोपो को किस प्रकार, किस क्रम से और कैसे निकाल दिये ? उनके निकालने पर क्या प्रतिक्रिया हुई ? इसका विवरण श्री आनन्दघनजी ने इस स्तुति मे दिया है।
सर्वप्रथम आशा-तृष्णा का त्याग श्र आनन्दघनजी ने 'अवर जेहने आदर अति दीए, तेने मूल निवारी' इस पद मे यह वीतराग ,परमात्मा के द्वारा आशा-तृष्णा-त्याग का भाव द्योतित कर दिया है। दूसरे (छमस्थ) लोग जिस आशा - (तृष्णा) को अत्यन्त आदर-सत्कार देते हैं, उसे आपने मूल से ही रोक दी, अपने पास तक फटकने नहीं दी । आपको किसी भी सासारिक वस्तु या व्यक्ति के प्रति आशा, स्पृहा या तृष्णा-लालसा नही रही । यहां तक कि आपने मुक्ति तक की आशा छोड दी थी। वीतगगप्रभु के जिन १८ दोपो का त्याग इस स्तुति मे वताया गया है, उनमें आशा का त्याग सर्वप्रथम दोष का त्याग है । पराई आशा हमेशा निराशा में परिणत हो जाती है। हममे जो कुछ सत्त्व हो, उसी