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अध्यात्म-दर्शन
अनेक प्रकार जानते हैं । परन्तु वस्तु (आत्मा) तो मूल में एक ही है, ये नत्र उसके अलग-अलग रूप है । जव आत्मा के विषय मे शुद्धनिश्चयनय की दृष्टि से कोई बात करता है, तो आत्मा के विभिन्न पयायो और विकल्पों को गौण करके मुख्यतया एक शुद्ध निरजन आत्मतत्व को ही देखता है। अगर कोई व्यक्ति एकान्त एक ही दृष्टि का आग्रह रख कर दूसरे का बिलकुल निषेध करता है, वहां ययार्यनय नही, नयामान है, यह बात छह अन्त्रो के दृष्टान्त पर से समझ लेनी चाहिए। अन्धो ने हायी कभी देखा नहीं था, अत जिसके हाथ मे कान आए, उसने घट कह दिया-हाथी नूप जमा है, जिसके हाथ में सूड आई, उसने दूसरे को मूग कह कर कह दिया-हायी मूसल जैसा है, तीसरे के हाथ मे पेट आया, तो उसने कहा-"हायी तो कोठी जैसा है। चौथे के हाथ मे पर आए तो वह वोला-हाथी तो स्तम्भ जैसा है। पाचवें के हाथ मे हाथी के दात आए तो उसने कहा-"हायी भुंगले की तरह है, छठे के हाय मे पूछ आई तो उसने कह दिया हायी तो रस्मे जैसा है । इस प्रकार रहो अपने-अपने आग्रह पर दृढ थे, सभी दूसरो को झूठे व अपने को सच्चा बता रहे थे । इसी प्रकार जो एकान्तरूप से एक बात को ही पकह कर जिद्द ठान कर बैठ जाय, दूसरो को झूठा वताए, वह नयाभानी है, वह दूसरे का निषेध करता है। परन्तु जो पूर्णाश को बता कर एकरूप को गौण रखता है, अथवा एकरून को वता कर अनेक पर्यायो को गौण रखता है, वह सापेक्षवादी यथार्थनयवादी है। इस प्रकार निश्चयनय और व्यवहारनय की उपयोगिता पात्र के भेद से अलग-अलग समझनी चाहिए ।
इतनी वात स्पष्ट होने के बाद अब निश्चयनय और व्यवहार नय के लाभालाभ के विषय मे श्रीलान्दघनजी कहते हैं
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व्यवहारे लख दोहिलो, कांई न आवे हाथ रे । .. शुद्धनय-थापना सेवतां, नवि रहे दुविधा साथ रे ।।
धरम०॥७॥ अर्थ
व्यवहारनय का आश्रय लेने पर लक्ष्यस्वरूप को प्राप्त करना अत्यन्त कठिन